ठाकुर का सेवकु आगिआकारी ॥ ठाकुर का सेवकु सदा पूजारी ॥
गउड़ी सुखमनी 132
ठाकुर का सेवकु आगिआकारी ॥
ठाकुर का सेवकु सदा पूजारी ॥
ठाकुर का सेवकु आगिआकारी ॥
ठाकुर का सेवकु सदा पूजारी ॥
यहाँ १ की बात की जा रही है जब मन अपने मूल में समाया हुआ है । अब मन सेवक
है और मूल ठाकुर है । यहाँ मन अपने ठाकुर मूल का आज्ञाकारी सेवक है ।
भगवद गीता में यहीं आकर कृष्ण ने “मैं” कह दिया । १ होकर यह कहना कि मैं ही ब्रह्म हूँ मैं ही सब कुछ हूँ मैं ही सब करता हूँ यहीं आकर गलती है । यहाँ हौमे पैदा हो गयी । उपरोक्त शलोक में गीता में हुई गलती को सुधारा गया है । गीता कृष्ण ने स्व्म नहीं लिखी यह भी किसी पंडित की लिखी हुई है यह भी कई प्रकार की है । इस अवस्था में आकर यदि मैं कहा जाये तो
खसमै करे बराबरी फिरि गैरति अंदरि पाइ ॥ अंग 474
सेवक तभी है यदि वह आज्ञाकारी है । यदि आज्ञाकारी नहीं तो वे सेवक नहीं है ।
ठाकुर का सेवक सदा पुजारी होता है । उसने तन मन धन ठाकुर को सौंपा हुआ होता है । उसकी अपनी कोई राय या मर्जी नहीं होती । जो ठाकुर करता है उसी को स्वीकार करता है ।
लेकिन आज कल पुजारी उसे कहा जाता है जो गुल्लक पर अपना हाथ साफ करता है । जिसके कब्जे में गुल्लक है आज वही पुजारी है । गुरबानी वाला पुजारी और संसार का पुजारी दोनों अलग हैं ।
ठाकुर के सेवक कै मनि परतीति ॥
ठाकुर के सेवक की निरमल रीति ॥
यदि कोई वाकई ठाकुर का सेवक हो तो उसके मन में ठाकुर के प्रति पूरा विश्वास होता है । यदि विश्वास ही ना हो तो वह सेवक नहीं हो सकता । यदि गुरबानी पर भरोसा नहीं है तो गुरबानी के सेवक नहीं है ।
ठाकुर के सेवक का बर्ताव निर्मल होता है । यदि उसके बर्ताव में स्वार्थ हो तो वह निर्मल नहीं है । परमार्थ भले ही न हो लेकिन स्वार्थ रहित होना चाहिए । सेवक के मन में मलीनता या स्वार्थ नहीं होता ।
ठाकुर कउ सेवकु जानै संगि ॥
प्रभ का सेवकु नाम कै रंगि ॥
ठाकुर को संग जानकार ही सेवक की निर्मल रीत हो सकती है । ठाकुर और सेवक दोनों एक ही होते हैं । जब सेवक अपने ठाकुर को हमेशा अपने संग मानता तो वह कभी गलती कर ही नहीं सकता ।
प्रभ का सेवक नाम के रंग में रंगा रहता है । प्रभ का सेवक माया के रंग में नहीं रंगता । उसके लिए तो नाम ही धन है । संसारी धन को वह विष के समान ही मानता है ।
सेवक कउ प्रभ पालनहारा ॥
सेवक की राखै निरंकारा ॥
सेवक का पालनहार प्रभ ही है । जिसके घर सब कुछ है वही सेवक का पालनहार है । जिस सेवक का प्रभ पालनहार हो उसे किसी दूसरे की आवश्यकता ही नहीं होती ।
जहां तक सेवक की रक्षा की बात है वहाँ उसकी रक्षा निरंकारा स्वम करता है । निरंकारा से भाव हुक्म है ।
निरंकार – पूर्ण ब्रह्म
निरंकारा – पूर्ण ब्रह्म की इच्छा
पूर्ण ब्रह्म माया से परे रहता है । वे भव-सागर में नहीं रहता । शब्द रूप में भव – सागर में दखल दे सकता है । निरंकार का देश अलग है । संसार में निरंकार नहीं आता । निरंकारा संसार में आ सकता है । निरंकार की इच्छा शक्ती संसार में काम करती है । निरंकार स्व्म संसार में नहीं आता ।
सो सेवकु जिसु दइआ प्रभु धारै ॥
नानक सो सेवकु सासि सासि समारै ॥३॥
सेवक वह है जिस पर प्रभ की दया हो जाये । जिस पर प्रभ की दया न हो वह सेवा कर भी नहीं सकता । जो सेवा नहीं करता उस पर फिर कृपा भी नहीं होती । जो कृपा माँगता है उसे कृपा मिलती है जो माया माँगता है उसे माया मिलती है । नानक कह रहे हैं उसकी कृपा तभी होती है जब हमारी सुरति माया को देख कर उखड़े ना, वह सेवक श्वास श्वास अपने आप को संवारता है । वह सेवक अपने अवगुण दूर करता है, अपनी कमियों को ठीक करता है ।
भगवद गीता में यहीं आकर कृष्ण ने “मैं” कह दिया । १ होकर यह कहना कि मैं ही ब्रह्म हूँ मैं ही सब कुछ हूँ मैं ही सब करता हूँ यहीं आकर गलती है । यहाँ हौमे पैदा हो गयी । उपरोक्त शलोक में गीता में हुई गलती को सुधारा गया है । गीता कृष्ण ने स्व्म नहीं लिखी यह भी किसी पंडित की लिखी हुई है यह भी कई प्रकार की है । इस अवस्था में आकर यदि मैं कहा जाये तो
खसमै करे बराबरी फिरि गैरति अंदरि पाइ ॥ अंग 474
सेवक तभी है यदि वह आज्ञाकारी है । यदि आज्ञाकारी नहीं तो वे सेवक नहीं है ।
ठाकुर का सेवक सदा पुजारी होता है । उसने तन मन धन ठाकुर को सौंपा हुआ होता है । उसकी अपनी कोई राय या मर्जी नहीं होती । जो ठाकुर करता है उसी को स्वीकार करता है ।
लेकिन आज कल पुजारी उसे कहा जाता है जो गुल्लक पर अपना हाथ साफ करता है । जिसके कब्जे में गुल्लक है आज वही पुजारी है । गुरबानी वाला पुजारी और संसार का पुजारी दोनों अलग हैं ।
ठाकुर के सेवक कै मनि परतीति ॥
ठाकुर के सेवक की निरमल रीति ॥
यदि कोई वाकई ठाकुर का सेवक हो तो उसके मन में ठाकुर के प्रति पूरा विश्वास होता है । यदि विश्वास ही ना हो तो वह सेवक नहीं हो सकता । यदि गुरबानी पर भरोसा नहीं है तो गुरबानी के सेवक नहीं है ।
ठाकुर के सेवक का बर्ताव निर्मल होता है । यदि उसके बर्ताव में स्वार्थ हो तो वह निर्मल नहीं है । परमार्थ भले ही न हो लेकिन स्वार्थ रहित होना चाहिए । सेवक के मन में मलीनता या स्वार्थ नहीं होता ।
ठाकुर कउ सेवकु जानै संगि ॥
प्रभ का सेवकु नाम कै रंगि ॥
ठाकुर को संग जानकार ही सेवक की निर्मल रीत हो सकती है । ठाकुर और सेवक दोनों एक ही होते हैं । जब सेवक अपने ठाकुर को हमेशा अपने संग मानता तो वह कभी गलती कर ही नहीं सकता ।
प्रभ का सेवक नाम के रंग में रंगा रहता है । प्रभ का सेवक माया के रंग में नहीं रंगता । उसके लिए तो नाम ही धन है । संसारी धन को वह विष के समान ही मानता है ।
सेवक कउ प्रभ पालनहारा ॥
सेवक की राखै निरंकारा ॥
सेवक का पालनहार प्रभ ही है । जिसके घर सब कुछ है वही सेवक का पालनहार है । जिस सेवक का प्रभ पालनहार हो उसे किसी दूसरे की आवश्यकता ही नहीं होती ।
जहां तक सेवक की रक्षा की बात है वहाँ उसकी रक्षा निरंकारा स्वम करता है । निरंकारा से भाव हुक्म है ।
निरंकार – पूर्ण ब्रह्म
निरंकारा – पूर्ण ब्रह्म की इच्छा
पूर्ण ब्रह्म माया से परे रहता है । वे भव-सागर में नहीं रहता । शब्द रूप में भव – सागर में दखल दे सकता है । निरंकार का देश अलग है । संसार में निरंकार नहीं आता । निरंकारा संसार में आ सकता है । निरंकार की इच्छा शक्ती संसार में काम करती है । निरंकार स्व्म संसार में नहीं आता ।
सो सेवकु जिसु दइआ प्रभु धारै ॥
नानक सो सेवकु सासि सासि समारै ॥३॥
सेवक वह है जिस पर प्रभ की दया हो जाये । जिस पर प्रभ की दया न हो वह सेवा कर भी नहीं सकता । जो सेवा नहीं करता उस पर फिर कृपा भी नहीं होती । जो कृपा माँगता है उसे कृपा मिलती है जो माया माँगता है उसे माया मिलती है । नानक कह रहे हैं उसकी कृपा तभी होती है जब हमारी सुरति माया को देख कर उखड़े ना, वह सेवक श्वास श्वास अपने आप को संवारता है । वह सेवक अपने अवगुण दूर करता है, अपनी कमियों को ठीक करता है ।
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