अकाल पुरख का सवरूप और उसके गुण
अकाल उसतति 004 भाग 2
निरजुर निरूप हो कि सुंदर सरूप हो कि भूपन के भूप हो कि दाता महा दान हो ॥
निरजुर – जरा रोग से रहित, निरुप – रूप रहित
तुम निरजुर निरुप हो कि सुन्दर स्वरुप हो । रूप तो है लेकिन संसारी रूप नहीं है । ऐसा रूप नहीं है जो आँखों को दिखायी दे । मूरत तो है लेकिन बयान नहीं किया जा सकता । तेरा रूप बयान नहीं किया जा सकता । तुम्हे क्या कहूँ निरजुर निरुप कहूँ या सुन्दर स्वरुप कहूँ ।
यहाँ जो राजा बने बैठे हैं (धार्मिक गुरु या संसारी राजा) तू उनका भी राजा है । संसार के साथ तुलना कर उन्हें राजा कहा है । पर हुक्म के आगे वे भी दास ही हैं ।
भूपन के भूप हो कि दाता महा दान हो अर्थात महादानी हो । नाम दान ही महादान है । इससे बड़ा कोई दान नहीं है ।
प्रान के बचया दूध पूत के दिवया रोग सोग के मिटया किधौ मानी महा मान हो ॥
प्रान के बचया – नाम
नाम ही प्रान का बचया है । दूध पूत से भाव संसारी दूध पूत से नहीं, दूध – गुरबानी और पूत – ज्ञान के लिए प्रयोग किया गया है । तत को ही पूत कहा गया है । यदि गुरबानी रूप दूध से तत ज्ञान रूप मक्खन नहीं खाया तो सद्जीवन प्राप्त नहीं हो सकेगा । यदि यह नहीं खाया तो प्राण नहीं बचेगें । दूध पूत संसारी नहीं है यहाँ दूध पूत आत्मा से सम्बंधित हैं । गुरबानी का सम्बन्ध आत्मा से है । मन चित १ होकर जब बुद्धि गुरबानी की विचार करती है तभी तत ज्ञान की प्राप्ति होती है ।
रोग सोग को मिटाने वाला है, रोग सोग दूर होंगे तभी प्राण बचेंगे । तभी सचखंड का मान प्राप्त होगा । सचखंड का मान ही असली मान है संसारी मान उसके सामने कुछ भी नहीं है ।
बिदिआ के बिचार हो कि अद्वै अवतार हो कि सिधता की सूरति हो कि सुधता की सान हो ॥
गुरबानी में से गुरबानी के अर्थ खोजना ही विद्या विचार है, यदि विद्या की विचार न कि हो तो गुर गुरु सतिगुर क्या है समझ नहीं आता, दूध पूत क्या है पता नहीं चलता, माता पिता किसे कहा है पता नहीं चलता । संसारी अर्थों द्वारा गुरबानी के अर्थ नहीं समझे जा सकते । उन अर्थों का आत्मा से कोई सम्बन्ध ही नहीं है ।
जो विद्या का विचार करले वह फिर अद्वै अवतार हो जाएगा । उसके अंदर कोई द्वेष नहीं रहता उसका न कोई अपना होता है और न कोई बेगाना ।
तुझे विद्या का विचारी कहूँ या अद्वै अवतार कहूँ ।
संसारी बुद्धि छोड़ आत्म ज्ञान लेकर ही सिद्धता पायी । उस सुध ने ही मन को शुद्ध कर दिया । सिधता की सूरति तू ही है, ज्ञान तेरा ही होता है, समझ तेरी ही आती है । तेरा समझ आना ही तेरा दर्शन होना है ।
संसारी लोग शरीर को धोकर अपने आप को शुद्ध कहने लग गए । गुरबानी उन्हें शुद्ध नहीं मानती । गुरबानी अनुसार
सूचे ऐहि न आखीअहि बहनि जि पिंडा धोई।।
सूचे सेई नानका जिन मनि वसिआ सोई ।। ( आदि ग्रन्थ )
जब तब तू मन में नहीं बसा, तेरा मिलाप नहीं हुआ तब तक शुद्धता नहीं है । सुधता की शान तेरे कारण है न कि शरीर को धोने के कारण ।
जोबन के जाल हो कि काल हूं के काल हो कि सत्रन के सूल हो कि मित्रन के प्रान हो ॥९॥१९॥
जब नर तू है नारी भी तू है तो रूप का जाल भी तू ही है । यदि जोबन ( यौवन ) को देख कर चले तो संसार के जाल में फंस जायेंगे । इसे यां का जाल ही समझना है । यहाँ इसके जाल में नहीं फंसना बल्कि ज्ञान रुपी मोती खा हंस बनना है । माया का मोह नहीं पालना है । यदि मोह पाल लिया तो संसार में फंस गए । हीरे मोती के अलावा यदि और कुछ खाने लग गए तो यहीं यह जाल से निकल नहीं पायेगा । जब मन चित एक हो जाते हैं तब वह इस जाल का कोई असर नहीं होता । मन चित फिर केवल शिक्षा ही लेते हैं ।
संसारी जीव एक दुसरे का काल हैं लेकिन तू सब का काल है । समय को काल कहते हैं पर जब रचना नहीं होती तब काल भी नहीं होता तीनो काल नहीं होते । जब सूरज चंद्रमा नहीं तब समय कैसा । समय भी तू ही खत्म करता है । इसलिए तू काल का भी काल है ।
सत्रन – शत्रु – अवगुण शत्रुओं के लिए शूल के समान हो तुम । जो सच के विरोधी हैं उनके लिए तुम शूल हो । और जो मित्र हैं उनके प्राण हो तुम ।
कहूं ब्रहम बाद कहूं बिदिआ को बिखाद कहूं नाद को ननाद कहूं पूरन भगत हो ॥
कहीं ब्रह्म वाद है । ब्रह्म संसार में है । सभी ब्रह्म ही हैं । ब्रह्म से ही मन पैदा होता है जिसे ब्रह्मा कहते हैं । जब इसका चित और मन १ हो जाता है तब यह ब्रह्म ही पूर्ण ब्रह्म हो जाता है । जिसमे ज्ञान की कमी है वह ब्रह्म है । जब ज्ञान की कमी भूख समाप्त हो गयी तब यह पूर्ण ब्रह्म हो जाएगा । पूर्णब्रह्म से आगे पारब्रह्म है । अभी तो यह केवल कच्चे फल के समान है । इसी ने आगे वृक्ष बनना है । लेकिन जब तक यह फल कच्चा है तब तक इसे संसार रुपी वृक्ष से लगे रहना है, जब पक गया तब इसे संसार रुपी वृक्ष की आवश्यकता नहीं है । जब तक पूर्ण नहीं हो जाते तब तक संसार शरीर की आवश्यकता है । ज्ञान द्वारा ही परिपक्व हुआ जा सकता है, पक कर ही माया का त्याग संभव है । माया का मोह छोड़ कर ही यह संभव है ।
संसारी विद्या को गुरबानी अविद्या ही मानती है । विद्वानों द्वारा पढाई गयी विद्या अविद्या ही है । जिसे वे सच मान बैठे हैं वह झूठ है । जो झूठ है उसी को सच मान बैठे हैं । जिसे पिता माना हुआ है वह पिता नहीं है जिसे माता माना हुआ है वह माता नहीं है । जिसे मरना कहते हैं वह मरना है ही नहीं । क्यूंकि मरता तो कोई है ही नहीं । जो ये मानते हैं वह सब झूठ है । जो आँखों को दिखता है वह सब माया है । इनकी विद्या ही उसी पर आधारित है । विद्या का शोध किये बिना तत की प्राप्ति नहीं की जा सकती । जिन्होंने विद्या का शोध नहीं किया वे केवल गुरबानी से छाछ ही पीते है और नाम रुपी मक्खन से वंचित रह जाते हैं ।
नाद – अंतरात्मा की आवाज
ननाद – विरोधी सुर, मन की आवाज
हमारे अंदर एक तरफ अंतरात्मा की आवाज है और दूसरी और मन की कल्पना इच्छा है । आदमी अंतरात्मा की आवाज को अनसुना कर मन की इच्छा को ही सामने रखता है । इसे ज्ञान नहीं होता कि किस बात में इसका फायदा है और किस बात में इसका नुकसान है ।
कहीं तू पूर्ण भक्त है । भक्ति में पूरा निपुण है भक्ति पूरी कर चुका है ।
कहूं बेद रीत कहूं बिदिआ की प्रतीत कहूं नीत अउ अनीत कहूं जुआला सी जगत हो ॥
कहीं तू बेद (वेद) रीत के अनुसार चलता है, तुझे विद्या की समझ भी है । तुझे सच और झूठ का ज्ञान है । क्या रहने वाला है क्या नहीं रहने वाला है इसका ज्ञान है । कहीं तू प्रचंड ज्ञान की अवस्था में बैठा है ।
पूरन प्रताप कहूं इकाती को जाप कहूं ताप को अताप कहूं जोग ते डिगत हो ॥
कहीं पूर्ण प्रताप है । ऐसा है जिसके दर्शन कर दुसरे निहाल हो जाए । कहीं एकांत में बैठा जाप करने वाला है । कहीं दुनिया से अलग आनंद में बैठा है ।
कहीं तू ताप को अताप अर्थात चिंताओं को खत्म करने वाला है । अपने मन को शांत कर रहा है । कहीं तू जोग की सीढ़ी के गिर रहा है । कौन क्या कर रहा है किसी क्या रास आ जाना है इसका किसी को कोई भी अंदाजा नहीं है ।
कहूं बर देत कहूं छल सिउ छिनाइ लेत सरब काल सरब ठउर एक से लगत हो ॥१०॥२०॥
कहीं तू वर दे रहा है मुंह मांगी चीज़ दे रहा है और जब कोई उस चीज़ को लेकर दूसरों से छल करता है वह उसी वह दिया हुआ छीन रहा है ।
तू सभी कालों में, सभी जगह मुझे एक सा ही लग रहा है । कोक की कहानी में हो चाहे विद्या का विचारी हो चाहे छत्रपति राजा हो आत्मा वही है । मैं उस आत्मा को देख रहा हूँ । आत्मा करती क्या है उसका फल उसे क्या मिल रहा है वह अलग बात है । मैं केवल आत्मा को देख रहा हूँ ना कि किसी के कर्म को ।
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