इहु हरि रसु पावै जनु कोइ ॥ अम्रितु पीवै अमरु सो होइ ॥

गउड़ी सुखमनी 143
इहु हरि रसु पावै जनु कोइ ॥
अम्रितु पीवै अमरु सो होइ ॥
हरि रसु – गुरबानी
जब आदमी गुरबानी से प्रेम करता है तब यह हरि रसु बनती है । जो इसे आमदनी का साधन बनाते हैं उनके लिए यह विष के समान ही है । इस हरि रसु को पाने वाला कोई-कोई जन ही होगा । भीड़ में कोई कोई होगा जो यह हरि रसु प्राप्त कर सकेगा । कोई अकेला ही होगा जो इसे बूझ कर स्वीकार करे । आदमी के अंदर जितने अवगुण ज्यादा होंगे गुरबानी उतना ही कम असर करेगी। अवगुण का त्याग आवश्यक है ।
जो इस अमृत को पी लेता है वह अमर हो जाता है । अमृत पीने के लिए गुरबानी की विचार, गुरबानी की खोज आवश्यक है ।
उसु पुरख का नाही कदे बिनास ॥
जा कै मनि प्रगटे गुनतास ॥
उस पुरख का कभी विनाश नहीं होता जिसके मन के अंदर गुण प्रकट हो जाएँ । निराहार निरवैर सुखदाई यहाँ इन्ही गुणों की बात की जा रही है । जन पहले जान ले फिर उससे जुड़े, उसका कभी नाश नही होता ।
जो जन जानि भजहि अबिगत कऊ तिन का कछु न नासा ॥ अंग 793
आठ पहर हरि का नामु लेइ ॥
सचु उपदेसु सेवक कउ देइ ॥
ऐसे पुरख की आठों पहर हरि का नाम लेने की रुचि रहती है । वे किसी खास समय अनुसार हरि का नाम नहीं लेता । वह हरि का नाम लेने के लिए को समय नहीं निर्धारित करता । ऐसा पुरख तो हर पल हरि नाम लेता रहता है । सेवक के लिए सच उपदेश करता है ।
मोह माइआ कै संगि न लेपु ॥
मन महि राखै हरि हरि एकु ॥
ऐसा पुरख मोह माया से लिप्त नही होता । यदि हृदय में माया का मोह है तो वहाँ नाम नहीं टिक सकता । मन में हरि को बसाने के लिया माया का लेप त्यागना पड़ेगा । जो मन में १ रखता है उसका मन माया से लिप्त नहीं होता । यदि मन पर माया का लेप हो तो हरि अंदर आकर नहीं बसता ।
अंधकार दीपक परगासे ॥
नानक भरम मोह दुख तह ते नासे ॥६॥
यदि ऐसा हो तभी जहां अंधकार हो वहाँ ज्ञान का दीपक जलता है । वहाँ नाम प्रकट होता है । नानक कह रहे हैं कि तब जाकर भ्रम मोह दुख आदि सब दूर भागते हैं ।

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