गिआन अंजनु गुरि दीआ अगिआन अंधेर बिनासु ॥ हरि किरपा ते संत भेटिआ नानक मनि परगासु ॥१॥
गउड़ी सुखमनी 178
सलोकु ॥
गिआन अंजनु गुरि दीआ अगिआन अंधेर बिनासु ॥
हरि किरपा ते संत भेटिआ नानक मनि परगासु ॥१॥
चित मन की एकता के बिना बाहर किसी से एकता नहीं हो सकती। मन सच पर यकीन ही नहीं करता । अपनी अंतरात्मा की आवाज पर ही यकीन नहीं है । जब अपनी ही अंतरात्मा की आवाज अच्छी ना लगे तो उसका अर्थ यही है कि बुद्धि विपरीत है । यह विनाशकाल का ही प्रतीक है । अंतरात्मा की आवाज न सुनना सच को न सुनना है । अंतरात्मा की आवाज के विपरीत चलने वाले ही जन्म मरण में रहते हैं ।
यहाँ गुर अर्जुन देव अपनी बात कर रहे हैं कि गुर ने हमारी बुद्धि की नजर में ज्ञान का सुरमा डाल दिया है ताकि अज्ञानता रुपी अन्धेरा दूर हो जाए । ज्ञान द्वारा ही अज्ञ्रानता ठीक होती है । जो लोग माया की दौड़ में लगे हुआ हैं वे अज्ञानता की दौड़ में लगे हुए हैं । जब तक इस अज्ञानता का इलाज नहीं होता तब तक शांति नहीं मिल सकती ।
जिससे शांति मिले वही संत है । शांति देने वाला शब्द ही संत है । ज्योत की देहि शब्द है । जो अंतरात्मा की आवाज है वही संत है । हरि की कृपा द्वारा, पूर्ण ब्रह्म की कृपा द्वारा, परमेश्वर की कृपा द्वारा ही अंतरात्मा की आवाज़ से मिलन हुआ और उस आवाज अनुसार चलना शुरू किया । तब जाकर भीतर परगास हुआ । तब जाकर पता चला कि कौनसा रास्ता सही है । जिस रास्ते पर बुद्धि का विनाश हो रहा था उसका भी ज्ञान हो गया ।
असटपदी ॥
संतसंगि अंतरि प्रभु डीठा ॥
नामु प्रभू का लागा मीठा ॥
जब संत की संगति की, जब अंतरात्मा अनुसार जीवन व्यतीत करना शुरू किया तब प्रभ अंदर ही देख लिया । अंतरात्मा की संगति करने वाला स्वम् ही पूर्ण ब्रह्म हो जाता है । जो अंतरात्मा की आवाज अनुसार चलने लग जाए वह स्वम् ही १ हो जाता है । अंतरि प्रभु डीठा से भाव है कि अपना आप अंदर ही देख लिया तभी जाकर नाम मीठा लगता है अन्यथा गुरबानी मीठी लगती ही नहीं है । सच की आवाज, जो अपने आप समझ प्राप्त होने लगती है वही प्रभ है, अंदर से उठने वाली आवाज ही प्रभ है ।
सगल समिग्री एकसु घट माहि ॥
अनिक रंग नाना द्रिसटाहि ॥
जब अंतरात्मा और बाहर १ हो जाता है तब सारी रचना सारी सृष्टि अंदर ही आ जाती है । पहले मन तीनो भवनों में भागता रहता था ।
पूर्ण ब्रह्म जब १ हो जाता है या जब पूर्ण ब्रह्म हो जाता है तब सब कुछ सारी रचना उसके ह्रदय में समा जाती है । ह्रदय सुख सागर हो जाता है और यह भव सागर उसी में समा जाता है ।
अनेक प्रकार के रंग, जितने दुनिया के ज्ञान हैं, जिस प्रकार से सृष्टि रची गयी है वह सब दृष्टमान हो जाता है ।
नउ निधि अम्रितु प्रभ का नामु ॥
देही महि इस का बिस्रामु ॥
नउ निधि – नया खजाना, विवेक। इसका अर्थ नौ निधियाँ नहीं है नौ निधियाँ माया ही हैं । इसका अर्थ केवल ज्ञान रुपी नया खजाना है । यहाँ विवेक की बात हो रही है ।
अंतरात्मा की आवाज पहला रूप है इसे को आगे जाकर फल लगना है । अंतरात्मा की आवाज को मानकर ही फल लगेगा ।
सारी रचना सगल समिग्री जब घट (ह्रदय ) में ही है तब अमृत बाहर कैसे हो सकता है वह अमृत भी ह्रदय में ही है । अमृत नाम ह्रदय में ही है । इसका विश्राम देहि में ही है । जब ह्रदय में सारी सृष्टि आ गयी तब नाम अमृत भी ह्रदय में ही है । रोग और उसकी दवा दोनों अंदर ही हैं ।
सुंन समाधि अनहत तह नाद ॥
कहनु न जाई अचरज बिसमाद ॥
जहाँ मन ने शान्त होकर बैठना है वहीँ से अनहद नाद पैदा होना है । शरीर केवल बीज के छिलके के ही समान है, छिलका अलग रह जाता है और उस बीज से पेड़ उग जाता है । उसी प्रकार शरीर अलग रह जाता है और आत्मा का ही अंदर जन्म होना है । जहाँ मन सुन्न हो गया वहीँ शब्द पैदा होगा । अपने मन में ही ध्यान रखना है क्योंकि मन ने शब्द का रूप धारण करना है । पूर्ण ब्रह्म का रूप शब्द ही है । मन में जो इच्छा/कल्पना पैदा होती थी वही उसकी शक्ल थी लेकिन पूर्ण ब्रह्म में जो लहर पैदा होगी वह हुक्म ही होगा । जब १ होकर बैठ जाएगा तब वही हुक्म पैदा होगा जो हुक्म है । जितने पूर्ण ब्रह्म हैं उनके अंदर की लहर द्वारा ही हुक्म पैदा हुआ है ।
यह अचरज भरी बात है विस्माद से भरी बात है जो कही नहीं जा सकती . जिसे बाहर ढूँढ रहे थे वह अंदर मिल जाए उससे विस्माद ही होता है, इससे आगे और कुछ नहीं कहा जा सकता I
यहाँ एक इशारा दिया गया है कि जहाँ मन शांत होकर बैठता है वहीँ खजाना है .
तिनि देखिआ जिसु आपि दिखाए ॥
नानक तिसु जन सोझी पाए ॥१॥
जिनके साथ यह घटना होती है केवल वही जानते हैं I किसी दुसरे को ज्ञान नहीं हो सकता I नानक कह रहे हैं कि जो देख लेता है वह मान लेता है I जब तक कोई स्वम् देख नहीं लेता तब तक वह मान ही नहीं सकता I
सलोकु ॥
गिआन अंजनु गुरि दीआ अगिआन अंधेर बिनासु ॥
हरि किरपा ते संत भेटिआ नानक मनि परगासु ॥१॥
चित मन की एकता के बिना बाहर किसी से एकता नहीं हो सकती। मन सच पर यकीन ही नहीं करता । अपनी अंतरात्मा की आवाज पर ही यकीन नहीं है । जब अपनी ही अंतरात्मा की आवाज अच्छी ना लगे तो उसका अर्थ यही है कि बुद्धि विपरीत है । यह विनाशकाल का ही प्रतीक है । अंतरात्मा की आवाज न सुनना सच को न सुनना है । अंतरात्मा की आवाज के विपरीत चलने वाले ही जन्म मरण में रहते हैं ।
यहाँ गुर अर्जुन देव अपनी बात कर रहे हैं कि गुर ने हमारी बुद्धि की नजर में ज्ञान का सुरमा डाल दिया है ताकि अज्ञानता रुपी अन्धेरा दूर हो जाए । ज्ञान द्वारा ही अज्ञ्रानता ठीक होती है । जो लोग माया की दौड़ में लगे हुआ हैं वे अज्ञानता की दौड़ में लगे हुए हैं । जब तक इस अज्ञानता का इलाज नहीं होता तब तक शांति नहीं मिल सकती ।
जिससे शांति मिले वही संत है । शांति देने वाला शब्द ही संत है । ज्योत की देहि शब्द है । जो अंतरात्मा की आवाज है वही संत है । हरि की कृपा द्वारा, पूर्ण ब्रह्म की कृपा द्वारा, परमेश्वर की कृपा द्वारा ही अंतरात्मा की आवाज़ से मिलन हुआ और उस आवाज अनुसार चलना शुरू किया । तब जाकर भीतर परगास हुआ । तब जाकर पता चला कि कौनसा रास्ता सही है । जिस रास्ते पर बुद्धि का विनाश हो रहा था उसका भी ज्ञान हो गया ।
असटपदी ॥
संतसंगि अंतरि प्रभु डीठा ॥
नामु प्रभू का लागा मीठा ॥
जब संत की संगति की, जब अंतरात्मा अनुसार जीवन व्यतीत करना शुरू किया तब प्रभ अंदर ही देख लिया । अंतरात्मा की संगति करने वाला स्वम् ही पूर्ण ब्रह्म हो जाता है । जो अंतरात्मा की आवाज अनुसार चलने लग जाए वह स्वम् ही १ हो जाता है । अंतरि प्रभु डीठा से भाव है कि अपना आप अंदर ही देख लिया तभी जाकर नाम मीठा लगता है अन्यथा गुरबानी मीठी लगती ही नहीं है । सच की आवाज, जो अपने आप समझ प्राप्त होने लगती है वही प्रभ है, अंदर से उठने वाली आवाज ही प्रभ है ।
सगल समिग्री एकसु घट माहि ॥
अनिक रंग नाना द्रिसटाहि ॥
जब अंतरात्मा और बाहर १ हो जाता है तब सारी रचना सारी सृष्टि अंदर ही आ जाती है । पहले मन तीनो भवनों में भागता रहता था ।
पूर्ण ब्रह्म जब १ हो जाता है या जब पूर्ण ब्रह्म हो जाता है तब सब कुछ सारी रचना उसके ह्रदय में समा जाती है । ह्रदय सुख सागर हो जाता है और यह भव सागर उसी में समा जाता है ।
अनेक प्रकार के रंग, जितने दुनिया के ज्ञान हैं, जिस प्रकार से सृष्टि रची गयी है वह सब दृष्टमान हो जाता है ।
नउ निधि अम्रितु प्रभ का नामु ॥
देही महि इस का बिस्रामु ॥
नउ निधि – नया खजाना, विवेक। इसका अर्थ नौ निधियाँ नहीं है नौ निधियाँ माया ही हैं । इसका अर्थ केवल ज्ञान रुपी नया खजाना है । यहाँ विवेक की बात हो रही है ।
अंतरात्मा की आवाज पहला रूप है इसे को आगे जाकर फल लगना है । अंतरात्मा की आवाज को मानकर ही फल लगेगा ।
सारी रचना सगल समिग्री जब घट (ह्रदय ) में ही है तब अमृत बाहर कैसे हो सकता है वह अमृत भी ह्रदय में ही है । अमृत नाम ह्रदय में ही है । इसका विश्राम देहि में ही है । जब ह्रदय में सारी सृष्टि आ गयी तब नाम अमृत भी ह्रदय में ही है । रोग और उसकी दवा दोनों अंदर ही हैं ।
सुंन समाधि अनहत तह नाद ॥
कहनु न जाई अचरज बिसमाद ॥
जहाँ मन ने शान्त होकर बैठना है वहीँ से अनहद नाद पैदा होना है । शरीर केवल बीज के छिलके के ही समान है, छिलका अलग रह जाता है और उस बीज से पेड़ उग जाता है । उसी प्रकार शरीर अलग रह जाता है और आत्मा का ही अंदर जन्म होना है । जहाँ मन सुन्न हो गया वहीँ शब्द पैदा होगा । अपने मन में ही ध्यान रखना है क्योंकि मन ने शब्द का रूप धारण करना है । पूर्ण ब्रह्म का रूप शब्द ही है । मन में जो इच्छा/कल्पना पैदा होती थी वही उसकी शक्ल थी लेकिन पूर्ण ब्रह्म में जो लहर पैदा होगी वह हुक्म ही होगा । जब १ होकर बैठ जाएगा तब वही हुक्म पैदा होगा जो हुक्म है । जितने पूर्ण ब्रह्म हैं उनके अंदर की लहर द्वारा ही हुक्म पैदा हुआ है ।
यह अचरज भरी बात है विस्माद से भरी बात है जो कही नहीं जा सकती . जिसे बाहर ढूँढ रहे थे वह अंदर मिल जाए उससे विस्माद ही होता है, इससे आगे और कुछ नहीं कहा जा सकता I
यहाँ एक इशारा दिया गया है कि जहाँ मन शांत होकर बैठता है वहीँ खजाना है .
तिनि देखिआ जिसु आपि दिखाए ॥
नानक तिसु जन सोझी पाए ॥१॥
जिनके साथ यह घटना होती है केवल वही जानते हैं I किसी दुसरे को ज्ञान नहीं हो सकता I नानक कह रहे हैं कि जो देख लेता है वह मान लेता है I जब तक कोई स्वम् देख नहीं लेता तब तक वह मान ही नहीं सकता I
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