सफल दरसनु पेखत पुनीत ॥ परसत चरन गति निरमल रीति ॥
गउड़ी सुखमनी 141
सफल दरसनु पेखत पुनीत ॥
परसत चरन गति निरमल रीति ॥
पुनीत का दर्शन ही सफल दर्शन इसके बाद कुछ नहीं है । पुनीत है ज्योत । पवित्र है ज्ञान । ज्ञान को बार बार समझना है , जिसका ज्ञान है उसे बार बार समझना, जब तक दर्शन ना हो तब तक समझते रहना । यही बार बार जपना है । जब समझ लिया वही दर्शन है । उसके बाद जपने की आवश्यकता ही नहीं है । १ को समझ लेना ही पुनीत दर्शन है । १ ही साबत सूरत है, उसमे माया का अंश नहीं है, उसमे अवगुण नहीं हैं, उसमे भ्रम नहीं है इसलिए वह पुनीत है ।
जब बुद्धि दर्शन के काबिल हो जाती है तब यह विवेक बुद्धि बन जाती है । तब यह केवल ज्योत देखती हैं यही सफल दर्शन है । विवेक बुद्धि शरीर,रूप-रंग, रेख-भेख, माया नहीं देखती । पुनीत के दर्शन और उसके गुणों को धारण करने से बुद्धि गतिशील होती है । जिसने गुरमुख को समझ लिया, उसकी ज्योत जान ली उसका दर्शन सफल हो गया । शरीर के दर्शन का कोई महत्व्व नहीं है । जिन्होने आत्मिक तौर पर गुरमुख का दर्शन किया हो वे फिर गुरमुख के गुणों को धारण करते हैं और उनकी बुद्धि ही गतिशील होती है, उनका ज्ञान आगे बढ़ता है, उनका व्यवहार निर्मल हो जाता है । उनके अंदर कोई मैल या स्वार्थ नहीं रहता ।
गुर अर्जुन देव ने पुनीत का दर्शन किया इसलिए गुरमत प्रचार की ज़िम्मेदारी उन्हे सौंपी गयी । उनके भाइयों ने केवल शरीर का दर्शन किया, वे ज्योत का दर्शन नहीं कर पाये ।
भेटत संगि राम गुन रवे ॥
पारब्रहम की दरगह गवे ॥
जब तक मन अपने मूल के साथ रहता है वह निर्मल रहता है । यदि मन अपने मूल से अलग हो जाये तो अलग होते ही उसमे मलीनता आ जाती है । जब तक मन चित से जुड़ा रहता है तब तक राम-गुण में लगा रहता है । यह सफर तब तक ही चकता है जब तक बुद्धि मन को चित से जोड़कर रखे । मन चित से अलग होते ही माया में भागता है । मन के माया में लग जाने से चित और बुद्धि का सचखण्ड का सफर बीच में रह जाता है । यदि मन चित के साथ जुड़ता है तभी पारब्रहम की दरगाह जा सकता है । बुद्धि द्वारा मन को राम कथा में लगाना है ताकि यह माया की तरफ भागे ही ना ।
जब तक मन को चित अपने साथ लगा नहीं लेता तब तक चित में भी वह गुण पैदा नहीं होते । चित का ध्यान अपने मन में है और मन का ध्यान माया में । चित मन को राजी करने में लग जाता है, चित ही है जिसने अपने गुण गवाए हैं । चित का मन के पीछे लगना ही अपने गुण गँवाना है । मन को समझा कर अपने साथ जोड़ लेने पर ही चित गुणवान है अन्यथा इसमे अवगुण ही हैं । जिसका मन बेकाबू हो उसमे गुण नहीं होते ।
चित (राम) गुण धारण कर ही पारब्रहम की दरगाह में प्रवेश करता है ।
सुनि करि बचन करन आघाने ॥
मनि संतोखु आतम पतीआने ॥
मन जब वचन सुनता है तब उसकी शंकाएँ दूर होती है । वचन सुन कर ही कर्ण तृप्त होते हैं । गुणों का ज्ञान हुआ तब कर्ण तृप्त हुए । मन को अपने सवालों के जवाब मिल गए ।
तब मन में संतोष आता है और तभी आत्मा को तसल्ली होती है । आत्मा और राम एक ही हैं ।
पूरा गुरु अख्यओ जा का मंत्र ॥
अम्रित द्रिसटि पेखै होइ संत ॥
पूरे गुर का मंत्र बोलने की क्षमता से परे है । बोलकर ब्यान नहीं किया जा सकता । पूरे गुर का मंत्र क्या है वह तो कथन से परे है लेकिन उसके बारे में बताया गया है । उसका मंत्र तो नाम है जो बोला ही नहीं जा सकता । जिसने बिना कानो से सुना है उसने यह ब्यान किया है । इसे बार बार जपने की आवश्यकता है ।
सारी सृष्टी के ऊपर उसकी अमृत रूपी दृष्टि है । वह सब पर अमृत बरसा रहा है । हमारे अंदर की अंतरात्मा की आवाज़ अमृत बरसाने वाली ही है ।
अंतरात्मा की आवाज ही उसका अख्यओ मंत्र है । यदि कोई इस आवाज़ को सुने और उसके साथ जुड़कर रहे तो वह संत हो जाता है । उसके मन को शांति मिल जाती है । मन से माया की भूख मिट्ठ जाती है ।
गुण बिअंत कीमति नही पाइ ॥
नानक जिसु भावै तिसु लए मिलाइ ॥४॥
उसके गुण बेअंत हैं, लेकिन एक गुण की भी कीमत पायी नहीं जा सकती । यह गुण अमूल्य हैं । नानक कह रहे हैं कि जिसे वह चाहे उसे अपने साथ मिला लेता है । जब सचखण्ड चाहे तो वह जिसे चाहे उसे अपने में मिला लेता है । सचखण्ड खरे-खोटे की पहचान कर ही खुद में शामिल करता है ।
सफल दरसनु पेखत पुनीत ॥
परसत चरन गति निरमल रीति ॥
पुनीत का दर्शन ही सफल दर्शन इसके बाद कुछ नहीं है । पुनीत है ज्योत । पवित्र है ज्ञान । ज्ञान को बार बार समझना है , जिसका ज्ञान है उसे बार बार समझना, जब तक दर्शन ना हो तब तक समझते रहना । यही बार बार जपना है । जब समझ लिया वही दर्शन है । उसके बाद जपने की आवश्यकता ही नहीं है । १ को समझ लेना ही पुनीत दर्शन है । १ ही साबत सूरत है, उसमे माया का अंश नहीं है, उसमे अवगुण नहीं हैं, उसमे भ्रम नहीं है इसलिए वह पुनीत है ।
जब बुद्धि दर्शन के काबिल हो जाती है तब यह विवेक बुद्धि बन जाती है । तब यह केवल ज्योत देखती हैं यही सफल दर्शन है । विवेक बुद्धि शरीर,रूप-रंग, रेख-भेख, माया नहीं देखती । पुनीत के दर्शन और उसके गुणों को धारण करने से बुद्धि गतिशील होती है । जिसने गुरमुख को समझ लिया, उसकी ज्योत जान ली उसका दर्शन सफल हो गया । शरीर के दर्शन का कोई महत्व्व नहीं है । जिन्होने आत्मिक तौर पर गुरमुख का दर्शन किया हो वे फिर गुरमुख के गुणों को धारण करते हैं और उनकी बुद्धि ही गतिशील होती है, उनका ज्ञान आगे बढ़ता है, उनका व्यवहार निर्मल हो जाता है । उनके अंदर कोई मैल या स्वार्थ नहीं रहता ।
गुर अर्जुन देव ने पुनीत का दर्शन किया इसलिए गुरमत प्रचार की ज़िम्मेदारी उन्हे सौंपी गयी । उनके भाइयों ने केवल शरीर का दर्शन किया, वे ज्योत का दर्शन नहीं कर पाये ।
भेटत संगि राम गुन रवे ॥
पारब्रहम की दरगह गवे ॥
जब तक मन अपने मूल के साथ रहता है वह निर्मल रहता है । यदि मन अपने मूल से अलग हो जाये तो अलग होते ही उसमे मलीनता आ जाती है । जब तक मन चित से जुड़ा रहता है तब तक राम-गुण में लगा रहता है । यह सफर तब तक ही चकता है जब तक बुद्धि मन को चित से जोड़कर रखे । मन चित से अलग होते ही माया में भागता है । मन के माया में लग जाने से चित और बुद्धि का सचखण्ड का सफर बीच में रह जाता है । यदि मन चित के साथ जुड़ता है तभी पारब्रहम की दरगाह जा सकता है । बुद्धि द्वारा मन को राम कथा में लगाना है ताकि यह माया की तरफ भागे ही ना ।
जब तक मन को चित अपने साथ लगा नहीं लेता तब तक चित में भी वह गुण पैदा नहीं होते । चित का ध्यान अपने मन में है और मन का ध्यान माया में । चित मन को राजी करने में लग जाता है, चित ही है जिसने अपने गुण गवाए हैं । चित का मन के पीछे लगना ही अपने गुण गँवाना है । मन को समझा कर अपने साथ जोड़ लेने पर ही चित गुणवान है अन्यथा इसमे अवगुण ही हैं । जिसका मन बेकाबू हो उसमे गुण नहीं होते ।
चित (राम) गुण धारण कर ही पारब्रहम की दरगाह में प्रवेश करता है ।
सुनि करि बचन करन आघाने ॥
मनि संतोखु आतम पतीआने ॥
मन जब वचन सुनता है तब उसकी शंकाएँ दूर होती है । वचन सुन कर ही कर्ण तृप्त होते हैं । गुणों का ज्ञान हुआ तब कर्ण तृप्त हुए । मन को अपने सवालों के जवाब मिल गए ।
तब मन में संतोष आता है और तभी आत्मा को तसल्ली होती है । आत्मा और राम एक ही हैं ।
पूरा गुरु अख्यओ जा का मंत्र ॥
अम्रित द्रिसटि पेखै होइ संत ॥
पूरे गुर का मंत्र बोलने की क्षमता से परे है । बोलकर ब्यान नहीं किया जा सकता । पूरे गुर का मंत्र क्या है वह तो कथन से परे है लेकिन उसके बारे में बताया गया है । उसका मंत्र तो नाम है जो बोला ही नहीं जा सकता । जिसने बिना कानो से सुना है उसने यह ब्यान किया है । इसे बार बार जपने की आवश्यकता है ।
सारी सृष्टी के ऊपर उसकी अमृत रूपी दृष्टि है । वह सब पर अमृत बरसा रहा है । हमारे अंदर की अंतरात्मा की आवाज़ अमृत बरसाने वाली ही है ।
अंतरात्मा की आवाज ही उसका अख्यओ मंत्र है । यदि कोई इस आवाज़ को सुने और उसके साथ जुड़कर रहे तो वह संत हो जाता है । उसके मन को शांति मिल जाती है । मन से माया की भूख मिट्ठ जाती है ।
गुण बिअंत कीमति नही पाइ ॥
नानक जिसु भावै तिसु लए मिलाइ ॥४॥
उसके गुण बेअंत हैं, लेकिन एक गुण की भी कीमत पायी नहीं जा सकती । यह गुण अमूल्य हैं । नानक कह रहे हैं कि जिसे वह चाहे उसे अपने साथ मिला लेता है । जब सचखण्ड चाहे तो वह जिसे चाहे उसे अपने में मिला लेता है । सचखण्ड खरे-खोटे की पहचान कर ही खुद में शामिल करता है ।
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