मन मेरे तिन की ओट लेहि ॥ मनु तनु अपना तिन जन देहि ॥
गउड़ी सुखमनी 137
मन मेरे तिन की ओट लेहि ॥
मनु तनु अपना तिन जन देहि ॥
मन मेरे तिन की ओट लेहि ॥
मनु तनु अपना तिन जन देहि ॥
मन को समझाया जा रहा है कि हे मन तू उन की शरण में जा जो आठों पहर हुक्म
से जुड़े रहते हैं । जे प्रभ के साथ बसते हैं उनकी ओट ही ले । सच की ओट ही
ले कहीं झूठी ओट न लेना । अपना मन तन केवल उन्ही को देना । मन को उपदेश है
कि तू भक्तों की ओट में रह । सच के विरोधिओं की दल में मत जाना । जो सच के
साथ है केवल उन्ही की ओट ले ।
जिनि जनि अपना प्रभू पछाता ॥
सो जनु सरब थोक का दाता ॥
जिसने अपना प्रभु पहचान लिया वह जन सरब थोक का दाता है । जिसके पास नाम है उसके पास सब कुछ है । जिसके पास संतोष हो उसी के पास सब कुछ है । जिसमे भूख है उसकी भूख कभी नहीं मिट्ठ सकती ।
भुखिआ भुख न ऊतरी जे बन्ना पुरीआ भार ॥ अंग 1
संतोषी ही है जिसके पास सब कुछ होता है ।
बिना संतोख नहीं कोऊ राजै ॥ अंग 279
ज्यादातर **सरब थोक का दाता ** के अर्थ गलत कर लोगों को गुमराह किया जाता है ।
तिस की सरनि सरब सुख पावहि ॥
तिस कै दरसि सभ पाप मिटावहि ॥
हुक्म शरण में सभी सुख हैं । हुक्म मानने में सब सुख हैं । हुक्म के दर्शन से, शब्द गुरु के दर्शन से कभी कल्पना नहीं होती है सभी पाप मिट्ठ जाते हैं । जो हम सोचते हैं और वह नहीं होता वही पाप है । हुक्म के विरुद्ध सोचना ही पाप है ।
अवर सिआनप सगली छाडु ॥
तिसु जन की तू सेवा लागु ॥
अपनी सारी समझदारी और चालाकी को छोड़ जो हुक्म से जुड़ा हुआ है उसकी सेवा में लग जा । जो सेवा वह कर रहा है वही सेवा कर । अर्थात हुक्म से जुड़ जा । यदि उसी के जैसा बनना है वही करना पड़ेगा जो वह जन करता है । यहाँ किसी जन की सेवा करने की बात नहीं है । जन स्व्म जो करता है वही करने को कहा गया है ।
आवनु जानु न होवी तेरा ॥
नानक तिसु जन के पूजहु सद पैरा ॥८॥१७॥
नानक कह रहे हैं कि यदि जन जैसी ही सेवा करेगा फिर तेरा आना जाना नहीं होगा । उस जन के पैर पूजो । यहाँ पैरों को पूजने से भाव उसी मार्ग पर चलने से हैं जिस मार्ग पर जन चलता है । उसी जन के पद चिह्नो पर चलने को कहा गया है । उसी मार्ग पर अपना तन मन अर्पण करने को कहा गया है ।
जिनि जनि अपना प्रभू पछाता ॥
सो जनु सरब थोक का दाता ॥
जिसने अपना प्रभु पहचान लिया वह जन सरब थोक का दाता है । जिसके पास नाम है उसके पास सब कुछ है । जिसके पास संतोष हो उसी के पास सब कुछ है । जिसमे भूख है उसकी भूख कभी नहीं मिट्ठ सकती ।
भुखिआ भुख न ऊतरी जे बन्ना पुरीआ भार ॥ अंग 1
संतोषी ही है जिसके पास सब कुछ होता है ।
बिना संतोख नहीं कोऊ राजै ॥ अंग 279
ज्यादातर **सरब थोक का दाता ** के अर्थ गलत कर लोगों को गुमराह किया जाता है ।
तिस की सरनि सरब सुख पावहि ॥
तिस कै दरसि सभ पाप मिटावहि ॥
हुक्म शरण में सभी सुख हैं । हुक्म मानने में सब सुख हैं । हुक्म के दर्शन से, शब्द गुरु के दर्शन से कभी कल्पना नहीं होती है सभी पाप मिट्ठ जाते हैं । जो हम सोचते हैं और वह नहीं होता वही पाप है । हुक्म के विरुद्ध सोचना ही पाप है ।
अवर सिआनप सगली छाडु ॥
तिसु जन की तू सेवा लागु ॥
अपनी सारी समझदारी और चालाकी को छोड़ जो हुक्म से जुड़ा हुआ है उसकी सेवा में लग जा । जो सेवा वह कर रहा है वही सेवा कर । अर्थात हुक्म से जुड़ जा । यदि उसी के जैसा बनना है वही करना पड़ेगा जो वह जन करता है । यहाँ किसी जन की सेवा करने की बात नहीं है । जन स्व्म जो करता है वही करने को कहा गया है ।
आवनु जानु न होवी तेरा ॥
नानक तिसु जन के पूजहु सद पैरा ॥८॥१७॥
नानक कह रहे हैं कि यदि जन जैसी ही सेवा करेगा फिर तेरा आना जाना नहीं होगा । उस जन के पैर पूजो । यहाँ पैरों को पूजने से भाव उसी मार्ग पर चलने से हैं जिस मार्ग पर जन चलता है । उसी जन के पद चिह्नो पर चलने को कहा गया है । उसी मार्ग पर अपना तन मन अर्पण करने को कहा गया है ।
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