प्रभ की द्रिसटि महा सुखु होइ ॥ हरि रसु पावै बिरला कोइ ॥
गउड़ी सुखमनी 155
प्रभ की द्रिसटि महा सुखु होइ ॥
हरि रसु पावै बिरला कोइ ॥
प्रभ की द्रिसटि महा सुखु होइ ॥
हरि रसु पावै बिरला कोइ ॥
जो प्रभ का दृष्टिकोण है उसमें महा सुख है । जो प्रभ का सार नाम है वह
सुखसागर में ले जाता है । माया का ज्ञान भव-सागर में ही फसा कर रखता है ।
लेकिन कोई दुर्लभ ही होता है जो यह हरि रस पाता है । जिसे भूख हो वह पा भी
लेता है लेकिन होता कोई दुर्लभ ही है । ऐसा कभी नहीं होता कि किसी को नाम
की भूख हो और नाम उसे न मिले । दुर्लभ का अर्थ यह नहीं है कि इच्छा सभी
करते हैं लेकिन मिलता किसी किसी को है । ऐसे बेइंसाफ़ी नहीं है । इसका अर्थ
यही है कि नाम की इच्छा ही किसी दुर्लभ आदमी को होती है । आम तौर पर आदमी
की इच्छा और भूख नाम की नहीं बल्कि माया की ही होती है ।
जिन चाखिआ से जन त्रिपताने ॥
पूरन पुरख नही डोलाने ॥
जिन्होने हरि रस चखा है वे जन तृप्त हो जाते हैं । यदि कोई तृप्त नहीं हुआ तो इसका अर्थ यही है कि उसने हरि रस नहीं चखा । सहज रूप से विचार करके ही हरि रस प्राप्त होता है । जिन्होने हरि रस चखा वे पूरन पुरख हो गए अर्थात पूर्ण ब्रह्म हो गए और वे कभी नहीं डोलते । वह जब भी बोलते हैं सच बोलते हैं और निर्भय होकर बोलते हैं । जो पूर्ण नहीं होता वह डोलता है उसे दूसरों की नाराजगी का भय रहता है ।
सुभर भरे प्रेम रस रंगि ॥
उपजै चाउ साध कै संगि ॥
पूर्ण पुरख प्रेम रस प्रेम रंग से पूरी तरह भरे हुए होते हैं उनके जरा सी भी कमी नहीं होती । प्रेम रस से ओत-प्रोत होते हैं । जब मन सध जाता है तब मन प्रेम रस पीता ही रहता है । जब तक मन सधा हुआ नहीं होता तब तक यह सच को ग्रहण ही नहीं करता । तब तक यह प्रेम रस को अंदर जाने ही नहीं रहता । जब तक मन डोलता है तब तक वह अपने हिसाब से ही पीता है । जब यह सध जाता है तब यह सच को बेसब्र होकर ग्रहण करता है । मन को केवल माया की और से संतोषी होना चाहिए । सच के लिए हमेशा बेसब्र रहना चाहिए । जिस दिन सच से सब्र आ गया उस दिन सच को छोड़ देगा । बुद्धि ने अपने मन को साध कर रखा है और प्रेम रस का चाव है, और कोई भी इच्छा नहीं है । इसके आगे केवल सुख ही सुख है । इसलिए प्रेम रस का चाव लगा ही रहता है ।
परे सरनि आन सभ तिआगि ॥
अंतरि प्रगास अनदिनु लिव लागि ॥
मन ने शरण में पड़कर सब कुछ त्याग दिया । पहले तो केवल फिरत फिरत आया ही था लेकिन जब प्रेम रस से भर गया तब सब कुछ त्याग दिया । यह त्यागने की अवस्था है । अब केवल प्रेम रस पीने का ही चाव लगा रहता है । जहां से यह प्रेम रस प्राप्त हो रहा है वहाँ हमेशा के लिए लिव लगी रहती है । जब तक विकार रूपी दुश्मन हो तब तक चिंता रहती है लेकिन अब कोई चिंता है ही नहीं इस लिए लिव लगी रहती है ।
बडभागी जपिआ प्रभु सोइ ॥
नानक नामि रते सुखु होइ ॥२॥
अब कोई चिंता नहीं है लेकिन पुराना समय याद कर कह रहे हैं कि जब इस ओर चले थे तब बड़े भाग्य की ही बात थी जो प्रभ को जप लिया । नानक कह रहे हैं कि नाम में रंग कर सुख है । बड़े भाग्य थे जिस दिन इस ओर चला था और माया का रास्ता बदल यह सुख मिल गया ।
जिन चाखिआ से जन त्रिपताने ॥
पूरन पुरख नही डोलाने ॥
जिन्होने हरि रस चखा है वे जन तृप्त हो जाते हैं । यदि कोई तृप्त नहीं हुआ तो इसका अर्थ यही है कि उसने हरि रस नहीं चखा । सहज रूप से विचार करके ही हरि रस प्राप्त होता है । जिन्होने हरि रस चखा वे पूरन पुरख हो गए अर्थात पूर्ण ब्रह्म हो गए और वे कभी नहीं डोलते । वह जब भी बोलते हैं सच बोलते हैं और निर्भय होकर बोलते हैं । जो पूर्ण नहीं होता वह डोलता है उसे दूसरों की नाराजगी का भय रहता है ।
सुभर भरे प्रेम रस रंगि ॥
उपजै चाउ साध कै संगि ॥
पूर्ण पुरख प्रेम रस प्रेम रंग से पूरी तरह भरे हुए होते हैं उनके जरा सी भी कमी नहीं होती । प्रेम रस से ओत-प्रोत होते हैं । जब मन सध जाता है तब मन प्रेम रस पीता ही रहता है । जब तक मन सधा हुआ नहीं होता तब तक यह सच को ग्रहण ही नहीं करता । तब तक यह प्रेम रस को अंदर जाने ही नहीं रहता । जब तक मन डोलता है तब तक वह अपने हिसाब से ही पीता है । जब यह सध जाता है तब यह सच को बेसब्र होकर ग्रहण करता है । मन को केवल माया की और से संतोषी होना चाहिए । सच के लिए हमेशा बेसब्र रहना चाहिए । जिस दिन सच से सब्र आ गया उस दिन सच को छोड़ देगा । बुद्धि ने अपने मन को साध कर रखा है और प्रेम रस का चाव है, और कोई भी इच्छा नहीं है । इसके आगे केवल सुख ही सुख है । इसलिए प्रेम रस का चाव लगा ही रहता है ।
परे सरनि आन सभ तिआगि ॥
अंतरि प्रगास अनदिनु लिव लागि ॥
मन ने शरण में पड़कर सब कुछ त्याग दिया । पहले तो केवल फिरत फिरत आया ही था लेकिन जब प्रेम रस से भर गया तब सब कुछ त्याग दिया । यह त्यागने की अवस्था है । अब केवल प्रेम रस पीने का ही चाव लगा रहता है । जहां से यह प्रेम रस प्राप्त हो रहा है वहाँ हमेशा के लिए लिव लगी रहती है । जब तक विकार रूपी दुश्मन हो तब तक चिंता रहती है लेकिन अब कोई चिंता है ही नहीं इस लिए लिव लगी रहती है ।
बडभागी जपिआ प्रभु सोइ ॥
नानक नामि रते सुखु होइ ॥२॥
अब कोई चिंता नहीं है लेकिन पुराना समय याद कर कह रहे हैं कि जब इस ओर चले थे तब बड़े भाग्य की ही बात थी जो प्रभ को जप लिया । नानक कह रहे हैं कि नाम में रंग कर सुख है । बड़े भाग्य थे जिस दिन इस ओर चला था और माया का रास्ता बदल यह सुख मिल गया ।
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