जीअ जंत्र सभ ता कै हाथ ॥ दीन दइआल अनाथ को नाथु ॥
गउड़ी सुखमनी 171
जीअ जंत्र सभ ता कै हाथ ॥
दीन दइआल अनाथ को नाथु ॥
जीअ जंत्र सभ ता कै हाथ ॥
दीन दइआल अनाथ को नाथु ॥
जंत्र – शरीर, अनाथ – जीव, यदि परमेश्वर खबर न ले तो जीव अनाथ ही है ।
जो दीन दयाल अनाथ का नाथ है मर्जी उसी की चलती है । मन्त्र उसी का चलता है लेकिन तंत जंत्र इसी का है । नाम रुपी मन्त्र परमेश्वर का ही है और उसी का नाम रुपी मन्त्र चलता है । होता सचखंड की मर्जी से है लेकिन शरीर इसके पास है । शरीर हम अपना समझते हैं लेकिन सभी जीव उसी के करवाने पर कुछ करते हैं । मन्त्र उसका है, शरीर-जंत्र हमारा लेकिन करवा वही रहा है तंत्र उसका । जो शरीर द्वारा किया चाहे वह दुसरे जीवों को पैदा किया पाला चाहे संघार किया ।
जंत्र ब्रह्म का, मन्त्र पूर्ण ब्रह्म का । उससे जो तंत्र पैदा हुआ सृष्टि पैदा हुई वह भी पूर्ण ब्रह्म की ही है । ब्रह्म का कुछ भी नहीं है ।
हमारे पास जो शरीर है वह भी हमारा नहीं है । वह भी यहीं भस्म की ढ़ेरी बनकर रह जायेगा । दफनाया हुआ शरीर आखिर मिट्टी हो जायेगा । हम कह सकते हैं कि यह जमीन पैसा शरीर इत्यादि हमारा है लेकिन किसी का कुछ भी नहीं है ।
सभी जीव-जंत उसी दीन दयाल के हाथ में हैं जो अनाथों का नाथ है ।
जिसु राखै तिसु कोइ न मारै ॥
सो मूआ जिसु मनहु बिसारै ॥
जिसकी रक्षा वह करे उसे कौन मार सकता है । जिसे वह मन से विसार देता है वह मरे समान ही है । उसे स्वम् किसी को मारने की आवश्यकता ही नही है ।
तिसु तजि अवर कहा को जाइ ॥
सभ सिरि एकु निरंजन राइ ॥
जिसे इस बात का ज्ञान हो वे उसे छोड़ कर कहीं नहीं जाते । कोई कहाँ जाए उसे छोड़ कर । एकु निरंजन राइ का प्रयोग हुक्म के लिए किया गया है । सभी के सिर पर हुक्म है । जितने भी माया से रहित निरंजन हैं वे पूर्ण ब्रह्म ही है । पूर्ण ब्रह्म से ऊपर हुक्म है । हुक्म से बिछड़ा हुआ ही माया में जाकर गिरता है ।
जीअ की जुगति जा कै सभ हाथि ॥
अंतरि बाहरि जानहु साथि ॥
जीव की छूटने की जो विधि है, कैसे इसे भ्रम पड़ा है कैसे इसका भ्रम दूर होगा यह साड़ी जुगत – युक्ति सब उसी के हाथ में है । वह फ़साने की विधि भी जानता है और मुक्ति की विधि भी जानता है ।
अंदर और बाहर हुक्म ही है । यदि कोई अंदर है तब भी हुक्म में है यदि कोई बाहर है तब भी हुक्म है । हुक्म से बाहर कोई नहीं जा सकता । कोई हुक्म से बाहर नहीं निकल सकता । अंदर से हुक्म को मानना सार्थक है । बाहर से दिमाग से हुक्म को मानना तो केवल अपने दाव अनुसार पलटने की प्रतीक्षा करना है । मजबूरी सी मानने और दिल से मानने में फर्क है ।
गुन निधान बेअंत अपार ॥
नानक दास सदा बलिहार ॥२॥
वह गुणों का खाजाना है, उसके गुण बेअंत अपार हैं । नानक दास कह रहे हैं कि मैं उस पर बलिहारी जाऊँ ।
जो दीन दयाल अनाथ का नाथ है मर्जी उसी की चलती है । मन्त्र उसी का चलता है लेकिन तंत जंत्र इसी का है । नाम रुपी मन्त्र परमेश्वर का ही है और उसी का नाम रुपी मन्त्र चलता है । होता सचखंड की मर्जी से है लेकिन शरीर इसके पास है । शरीर हम अपना समझते हैं लेकिन सभी जीव उसी के करवाने पर कुछ करते हैं । मन्त्र उसका है, शरीर-जंत्र हमारा लेकिन करवा वही रहा है तंत्र उसका । जो शरीर द्वारा किया चाहे वह दुसरे जीवों को पैदा किया पाला चाहे संघार किया ।
जंत्र ब्रह्म का, मन्त्र पूर्ण ब्रह्म का । उससे जो तंत्र पैदा हुआ सृष्टि पैदा हुई वह भी पूर्ण ब्रह्म की ही है । ब्रह्म का कुछ भी नहीं है ।
हमारे पास जो शरीर है वह भी हमारा नहीं है । वह भी यहीं भस्म की ढ़ेरी बनकर रह जायेगा । दफनाया हुआ शरीर आखिर मिट्टी हो जायेगा । हम कह सकते हैं कि यह जमीन पैसा शरीर इत्यादि हमारा है लेकिन किसी का कुछ भी नहीं है ।
सभी जीव-जंत उसी दीन दयाल के हाथ में हैं जो अनाथों का नाथ है ।
जिसु राखै तिसु कोइ न मारै ॥
सो मूआ जिसु मनहु बिसारै ॥
जिसकी रक्षा वह करे उसे कौन मार सकता है । जिसे वह मन से विसार देता है वह मरे समान ही है । उसे स्वम् किसी को मारने की आवश्यकता ही नही है ।
तिसु तजि अवर कहा को जाइ ॥
सभ सिरि एकु निरंजन राइ ॥
जिसे इस बात का ज्ञान हो वे उसे छोड़ कर कहीं नहीं जाते । कोई कहाँ जाए उसे छोड़ कर । एकु निरंजन राइ का प्रयोग हुक्म के लिए किया गया है । सभी के सिर पर हुक्म है । जितने भी माया से रहित निरंजन हैं वे पूर्ण ब्रह्म ही है । पूर्ण ब्रह्म से ऊपर हुक्म है । हुक्म से बिछड़ा हुआ ही माया में जाकर गिरता है ।
जीअ की जुगति जा कै सभ हाथि ॥
अंतरि बाहरि जानहु साथि ॥
जीव की छूटने की जो विधि है, कैसे इसे भ्रम पड़ा है कैसे इसका भ्रम दूर होगा यह साड़ी जुगत – युक्ति सब उसी के हाथ में है । वह फ़साने की विधि भी जानता है और मुक्ति की विधि भी जानता है ।
अंदर और बाहर हुक्म ही है । यदि कोई अंदर है तब भी हुक्म में है यदि कोई बाहर है तब भी हुक्म है । हुक्म से बाहर कोई नहीं जा सकता । कोई हुक्म से बाहर नहीं निकल सकता । अंदर से हुक्म को मानना सार्थक है । बाहर से दिमाग से हुक्म को मानना तो केवल अपने दाव अनुसार पलटने की प्रतीक्षा करना है । मजबूरी सी मानने और दिल से मानने में फर्क है ।
गुन निधान बेअंत अपार ॥
नानक दास सदा बलिहार ॥२॥
वह गुणों का खाजाना है, उसके गुण बेअंत अपार हैं । नानक दास कह रहे हैं कि मैं उस पर बलिहारी जाऊँ ।
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