अबिनासी सुख आपन आसन ॥ तह जनम मरन कहु कहा बिनासन

गउड़ी सुखमनी 164
अबिनासी सुख आपन आसन ॥
तह जनम मरन कहु कहा बिनासन ॥
जो अविनाशी है उसे सुख होता है क्योंकि वह अपने आसन पर बैठा होता है । अविनाशी तभी है जब वह अपने निज घर का वासी हो । परदेस में रहने वाला अविनाशी नहीं हो सकता और न ही उसे परदेस में सुख हो सकता है । ज्योत अविनाशी है इसका कभी नाश नहीं होता । यह केवल सोती जागती है । जब इसे नींद आती है तब स्वप्न आता है और सारी परेशानी स्वप्न की ही है ।
आसन पर बैठे सुख है, वहां कोई जन्म मरन नहीं है । वहां बुद्धि का विनाश नहीं है । वहां अक्ल या गुणों का नाश नहीं होता । गुणों के नाश होने का खतरा नहीं है । संसार में गुणों का बुद्धि का नाश होता है क्योंकि झूठ से समझोता कर लेता है ।
जब पूरन करता प्रभु सोइ ॥
तब जम की त्रास कहहु किसु होइ ॥
जीव पूर्ण-कर्ता नहीं है । पूर्ण-कर्ता वह है जिसकी इच्छानुसार दूसरा काम करे । इच्छा उसी की है कर कोई और रहा है । कर सभी जीव रहे हैं लेकिन सभी जीव उसकी रजा में कर रहे हैं । इसलिए वह पूर्ण-कर्ता है । वह सभी को पूरा करने वाला है । वह स्वम् तो पूर्ण है लेकिन वह दूसरों को भी पूर्ण कर रहा है । जो कुछ भी वह कर रहा है वह परमार्थ है न कि स्वार्थ है । दूसरों को पूरा करने के लिए कर रहा है ।
जम – भ्रम , त्रास – भय
जम की त्रास से भाव भ्रम से होने वाले भय से है । जब भ्रम ही पैदा नहीं होता तो भ्रम से पैदा होने वाला भय कैसे होगा ।
जब अबिगत अगोचर प्रभ एका ॥
तब चित्र गुपत किसु पूछत लेखा ॥
जब अबिगत हो गया स्थिर हो गया टिक गया, अगोचर हो गया, पूर्ण ब्रह्म अगोचर होता है वह स्वाधीन होता है किसी पर आश्रित नहीं होता । पूर्ण ब्रह्म पूरा होता है, उसे किसी की आवश्यकता नहीं होती । ब्रह्म अबिगत नहीं होता । पूर्ण ब्रह्म ही अबिगत है क्योंकि वह परमगति पा जाता है । उसे जहाँ पहुंचना था वह पहुच गया । ब्रह्म अगोचर नहीं हो सकता क्योंकि वह अभी दूसरों पर आश्रित है । वह तो हर स्वास के लिए आश्रित है ।
जब वह अबिगत अगोचार हो गया फिर चित्र गुप्त किसका लिखा जोखा पूछेगा । यहाँ यही बताया गया है कि जब यह अकेला ही होता है तो चित्र गुप्त भी नहीं होता । इसका लेखा जोखा करने वाला कोई नहीं होता । चित्र-गुप्त कोई है ही नहीं । यहाँ रचना से पहले की ही बात की जा रही है जब केवल १ ही होता है । जब केवल पूर्ण ब्रह्म ही होता है । जब जन्म-मरण है ही नहीं तब चित्र-गुप्त लेखा किसे पूछेगा ।
जब नाथ निरंजन अगोचर अगाधे ॥
तब कउन छुटे कउन बंधन बाधे ॥
यहाँ अलग अलग नामों का उपयोग किया गया है ताकि सभी मतों को लिया जा सके । इसलिए कई भाषाओँ का प्रयोग किया गया है ।
जैसे पंडित चित्र-गुप्त को मानता है वैसे जोगी नाथ निरंजन को मानते हैं कि वह अगोचर है अगाधि है अर्थात मनुखी बुद्धि की पकड़ से परे है । जब वह अकेला ही है कोई और है ही नहीं तब बंधन किसे था और कौन छुटकारा देने वाला था । रचना कैसे रची गयी है यही सवाल इनसे किया गया है जिसका जवाब इन्होने कहीं भी नहीं दिया ।
आपन आप आप ही अचरजा ॥
नानक आपन रूप आप ही उपरजा ॥३॥
यह अपने आप में बड़ी अचरज भरी बात है की इसने अपना रूप आप ही पैदा किया है । चाहे इनसे पूर्ण ब्रह्म का रूप बना लिया चाहे माया का । यदि मन के तल पर सोच शुरू हो गयी, स्वार्थ, हऊमै आ गयी तब यह माया में आ जाता है । नानक कह रहे हैं कि इसने अपना रूप आपने आप ही पैदा किया है । रूप से भाव यहाँ इच्छा से है । इसने अपने अंदर इच्छा पैदा अपने आप ही की है ।

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