उपजी प्रीति प्रेम रसु चाउ ॥ मन तन अंतरि इही सुआउ ॥

गउड़ी सुखमनी 159
उपजी प्रीति प्रेम रसु चाउ ॥
मन तन अंतरि इही सुआउ ॥
नयी एक प्रीत पैदा हुई और प्रेम रस प्राप्त हुआ । यह प्रीत पहले नहीं थी । पहले मोह था । जब तक यह माया को देखता है तब तक उसका मोह होता है । जब निराकारी दुनिया में चला जाता है तब प्रीत पैदा होती है । अपने मूल से प्रीत पैदा होती है । अब केवल मूल ही अपना है बाकी कोई अपना है ही नहीं । सब कुछ अब मूल ही है ।
तुम सिऊ जोरि अवर संगि तोरी । । अंग 659
मन और ह्रदय में अब यही रह गया, केवल यही प्रयोजन रह गया । अब केवल इसी की आवश्यकता है । किसी और की जरुरत ही नहीं रही ।
नेत्रहु पेखि दरसु सुखु होइ ॥
मनु बिगसै साध चरन धोइ ॥
जब आंतरिक नेत्र खुले, आत्म दर्शन हुआ तो सुख हो गया, अपना वजूद देख कर सुख हो गया । बाहरी आखों से दर्शन नहीं होगा दर्शन केवल आंतरिक नेत्रों से ही होता है । जो १ है जो अकाल मूरत है उसके दर्शन की बात हो रही है । अंदर जो साध है मन उसके चरण धोकर खुश है । मन अंदर के साध के गुण ग्रहण करता है । जब तक उसके चरण धोकर पीता रहेगा यह अकाल मूरत रहेगा । जब तक अपनी मर्जी त्यागी हुई है तब तक मन नहीं है जब अपनी मर्जी की तभी मन पैदा हो जाता है ।
भगत जना कै मनि तनि रंगु ॥
बिरला कोऊ पावै संगु ॥
भक्तों के मन में और हृदय में नाम का ही रंग चढ़ा होता है जो उनकी संगति करता है उस पर भी नाम का रंग चढ़ जाता है । भक्तों की संगति करने से माया का त्याग करना पड़ता है इसलिए लोग उनकी संगति नहीं करते । भक्त संसार छुड़ा देते हैं और संसारी संसार छोड़ना नहीं चाहते ।
एक बसतु दीजै करि मइआ ॥
गुर प्रसादि नामु जपि लइआ ॥
एक बसतु – नाम पदार्थ
कृपा कर एक बसतु मुझे देदो । ज्ञान की कृपा द्वारा मैंने नाम जप लिया है । मैंने गुरबानी को विचार नाम जप लिया है अब तुम मुझे नाम पदार्थ दे दो ।
जो पहले नाम जपा उससे मन मरा था ।
ता की उपमा कही न जाइ ॥
नानक रहिआ सरब समाइ ॥६॥
हुक्म की उपमा कही नहीं जा सकती , उसकी बोलकर उपमा की ही नहीं जा सकती । नानक कह रहे हैं कि वेह तो सब में समय हुआ है । हुक्म सब में समाया हुआ है ।

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