आपि सति कीआ सभु सति ॥ तिसु प्रभ ते सगली उतपति ॥
गउड़ी सुखमनी 182
आपि सति कीआ सभु सति ॥
तिसु प्रभ ते सगली उतपति ॥
आपि सति कीआ सभु सति ॥
तिसु प्रभ ते सगली उतपति ॥
पूर्णब्रह्म ही सत रूप है । जो १ हो गया जो सत स्वरुप हो गया उसका किया सब
सत ही होता है । जो वह सोचता है वह भी सत ही होती है । जो स्वम् सत है वह
जो इच्छा करता है वही भी सत ही होती है । जैसी उसकी इच्छा होती है वैसा हो
जाता है । पूर्ण ब्रह्म को शरीर की जरुरत ही नहीं पड़ती उसकी इच्छा मुताबिक
ही सब हो जाता है । जो वह सोचता है उसके होने में कोई रुकावट नहीं आती ।
पूर्ण ब्रह्म हुक्म करने वाला है । उसी के हुक्म द्वारा इस सृष्टि की रचना हुई है ।
तिसु भावै ता करे बिसथारु ॥
तिसु भावै ता एकंकारु ॥
जिसने उत्पति की है वह चाहे तो कितना भी विस्तार कर ले । यह उसी की इच्छा है । पवन से जल, जल से जीव इसी प्रकार आगे से आगे विस्तार हुआ है । उसी की मर्जी द्वारा सृष्टि की रचना होती है । यदि वह चाहे तो सब कुछ समेट कर एकंकारु हो जाए ।
सब कुछ पूर्ण ब्रह्म की इच्छा पर ही निर्भर करता है ।
अनिक कला लखी नह जाइ ॥
जिसु भावै तिसु लए मिलाइ ॥
उसका बुद्ध बल ऐसा है जो समझे नहीं जा सकते। जितनी सृष्टि पैदा की है उसे पूर्णतया समझा नहीं जा सकता और न ही अंदाजा लगाया जा सकता है ।
यदि उसे भाए तो वह स्वम् मिला भी लेता है । सोये हुए को जगाने का फैसला उसी का है जो स्वम् जाग्रत है । वह जैसे चाहे जगा दे ।
कवन निकटि कवन कहीऐ दूरि ॥
आपे आपि आप भरपूरि ॥
कैसे कहें कि वह किसके निकट है और किससे दूर है । वह सभी के पास रहकर सभी को ज्ञान दे रहा है । हमने ही उसे दूर माना हुआ है । वह दूर है या पास यह केवल हमारी ही मान्यता है । वह राम तो सर्व व्यापी हो ।
वह स्वम् भरकर पूर्ण कर रहा है । जिसे भरकर पूर्ण करना है उसमे ध्यान होता ही है ।
अंतरगति जिसु आपि जनाए ॥
नानक तिसु जन आपि बुझाए ॥५॥
वह जिसे अपने अंदर झाँकने में लगा देता है ताकि वह स्वम् देखे और अपने अंदर की हालत को समझे । जैसे जैसे हमारे अवगुण घटते हैं हमें वैसे वैसे पता लगता है । जैसे रोगी को उसके रोग कम होने का अहसास होता है ।
नानक कह रहे हैं जिसे अपने अंदर झाँकने में लगाये वह जन सारी बात बूझ लेता है । वह जन अपना रोग, रोग का कारण सब कुछ समझ लेता है ।
पूर्ण ब्रह्म हुक्म करने वाला है । उसी के हुक्म द्वारा इस सृष्टि की रचना हुई है ।
तिसु भावै ता करे बिसथारु ॥
तिसु भावै ता एकंकारु ॥
जिसने उत्पति की है वह चाहे तो कितना भी विस्तार कर ले । यह उसी की इच्छा है । पवन से जल, जल से जीव इसी प्रकार आगे से आगे विस्तार हुआ है । उसी की मर्जी द्वारा सृष्टि की रचना होती है । यदि वह चाहे तो सब कुछ समेट कर एकंकारु हो जाए ।
सब कुछ पूर्ण ब्रह्म की इच्छा पर ही निर्भर करता है ।
अनिक कला लखी नह जाइ ॥
जिसु भावै तिसु लए मिलाइ ॥
उसका बुद्ध बल ऐसा है जो समझे नहीं जा सकते। जितनी सृष्टि पैदा की है उसे पूर्णतया समझा नहीं जा सकता और न ही अंदाजा लगाया जा सकता है ।
यदि उसे भाए तो वह स्वम् मिला भी लेता है । सोये हुए को जगाने का फैसला उसी का है जो स्वम् जाग्रत है । वह जैसे चाहे जगा दे ।
कवन निकटि कवन कहीऐ दूरि ॥
आपे आपि आप भरपूरि ॥
कैसे कहें कि वह किसके निकट है और किससे दूर है । वह सभी के पास रहकर सभी को ज्ञान दे रहा है । हमने ही उसे दूर माना हुआ है । वह दूर है या पास यह केवल हमारी ही मान्यता है । वह राम तो सर्व व्यापी हो ।
वह स्वम् भरकर पूर्ण कर रहा है । जिसे भरकर पूर्ण करना है उसमे ध्यान होता ही है ।
अंतरगति जिसु आपि जनाए ॥
नानक तिसु जन आपि बुझाए ॥५॥
वह जिसे अपने अंदर झाँकने में लगा देता है ताकि वह स्वम् देखे और अपने अंदर की हालत को समझे । जैसे जैसे हमारे अवगुण घटते हैं हमें वैसे वैसे पता लगता है । जैसे रोगी को उसके रोग कम होने का अहसास होता है ।
नानक कह रहे हैं जिसे अपने अंदर झाँकने में लगाये वह जन सारी बात बूझ लेता है । वह जन अपना रोग, रोग का कारण सब कुछ समझ लेता है ।
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