गुन गावत तेरी उतरसि मैलु ॥ बिनसि जाइ हउमै बिखु फैलु ॥
गउड़ी सुखमनी 152
गुन गावत तेरी उतरसि मैलु ॥
बिनसि जाइ हउमै बिखु फैलु ॥
गुन गावत तेरी उतरसि मैलु ॥
बिनसि जाइ हउमै बिखु फैलु ॥
नाम द्वारा हौमे का इलाज नहीं हो सकता । क्योंकि हौमे का नाम से विरोध है ।
जब तक अंदर हौमे है तब तक नाम अंदर प्रवेश ही नहीं करता । जो सीधे ही नाम
जपने की बात करते हैं उन्हे ज्ञान ही नहीं है । सीधे ही माला लेकर नाम जपा
नहीं जा सकता । जब तक अहंकार है तब तक नाम नहीं आ सकता । दोनों एक जगह बस
ही नहीं सकते । जब तक हौमे है तब तक नाम जपा नहीं जा सकता । पहले हौमे को
भागाना आवश्यक है । इसके लिए हमारे अंदर पहले गुणो की जय जयकार होनी चाहिए,
अभी तो अंदर अवगुणों, कामनाओं, संसारी जरूरतों की जय जयकार है । गुण गायन
द्वारा ही यह हौमे की मैल उतरेगी । अहंकारी आदमी किसी के गुण नहीं गाता वह
केवल अपने ही गुणों का बखान करता है । जब अहंकारी किसी दूसरे के गुण गाता
है तो उसका अहंकार कम होता जाता है ।
गुण गायन द्वारा ही ज्ञान प्राप्त होता है जो विकारों की मैल को दूर करता है । निराकार के गुणों को विचारकर ही ज्ञान प्राप्त होता है जिससे विकारों की मैल दूर होती है और अंदर हौमे का जो ज़हर फैला हुआ है वह खत्म हो जाएगा । आदमी के अंदर अहंकार के कारण उसका ज्ञान जहरीला हो जाता है और उसी का नुकसान करता है ।
होहि अचिंतु बसै सुख नालि ॥
सासि ग्रासि हरि नामु समालि ॥
जब आदमी में अहंकार के विष का नाश होता है तब उसकी चिंता चली जाती है । तब जाकर चिंतामुक्त होकर सुख से बस पाएगा । जब तक चिंता अंदर रहती है तब तक मन टिक ही नहीं सकता । सुख सभी चाहते हैं लेकिन यह मानने को कोई तैयार नहीं है और व्यर्थ की प्रार्थनाएँ और यत्न करते रहते हैं ।
चिंतामुक्त होकर सुख से बसते हुए ही नाम हर स्वास ग्रास के साथ नाम-धन इकट्ठा किया जा सकता है । जीव हरि नाम की कमाई करने आया था लेकिन इसका ध्यान संसारी धन और संसारी जरूरतों को पूरा करने में लग गया ।
छाडि सिआनप सगली मना ॥
साधसंगि पावहि सचु धना ॥
यहाँ सुचेत किया जा रहा है कि यहाँ तेरी खुद की सियानप (चतुराई ) ही तेरे रास्ते की बाधा बनेगी, इसलिए इसका त्याग करना जरूरी है । यह चतुराई आगे बढ्ने नहीं देती, यह हौमे को छोड़ने नहीं देती, अपनी मर्जी त्यागने नहीं देती ।
इसलिए अपने मन को साध लो तभी सच धन की प्राप्ति होगी । जिसका मन सधा हुआ नहीं होता जिसका मन संतोषी नहीं है जिसका मन माया में फंसा हुआ है वह यह धन नहीं पा सकता । मन माया की भूख नहीं त्यागता और रास्ते की बाधा बन जाता है । मन से माया की भूख के त्याग के बिना सच धन की प्राप्ति नहीं हो सकती ।
हरि पूंजी संचि करहु बिउहारु ॥
ईहा सुखु दरगह जैकारु ॥
हरि पूंजी को ही संचय कर इसी से व्यवहार करो । पहले संचय करो फिर व्यापार करो । यह पूंजी हमेशा रहने वाली है इस पर माया का कोई असर नहीं होता । यहाँ तो सुख होगा ही दरगाह में जय जयकार होगी । मन को जीतने वालों की दरगाह में जयकार होती है ।
सरब निरंतरि एको देखु ॥
कहु नानक जा कै मसतकि लेखु ॥७॥
सभी के अंदर लगातार एक को ही देख । हो सकता है फिर केवल गुरमुख अच्छे लगे और साकत अच्छे ही न लगें । यहाँ दृष्टिकोण में फर्क नहीं आने देना । यहाँ पर भी बुरे का भला करने की ही सोच रखनी है ।
नानक कह रहे हैं कि जिसके अंदर समदृष्टि होगी वही सबमे एक को देख पाएगा । कोई दूसरा कुछ भी सोचता रहे लेकिन वे अपनी समदृष्टि भंग नहीं कर सकते ।
गुण गायन द्वारा ही ज्ञान प्राप्त होता है जो विकारों की मैल को दूर करता है । निराकार के गुणों को विचारकर ही ज्ञान प्राप्त होता है जिससे विकारों की मैल दूर होती है और अंदर हौमे का जो ज़हर फैला हुआ है वह खत्म हो जाएगा । आदमी के अंदर अहंकार के कारण उसका ज्ञान जहरीला हो जाता है और उसी का नुकसान करता है ।
होहि अचिंतु बसै सुख नालि ॥
सासि ग्रासि हरि नामु समालि ॥
जब आदमी में अहंकार के विष का नाश होता है तब उसकी चिंता चली जाती है । तब जाकर चिंतामुक्त होकर सुख से बस पाएगा । जब तक चिंता अंदर रहती है तब तक मन टिक ही नहीं सकता । सुख सभी चाहते हैं लेकिन यह मानने को कोई तैयार नहीं है और व्यर्थ की प्रार्थनाएँ और यत्न करते रहते हैं ।
चिंतामुक्त होकर सुख से बसते हुए ही नाम हर स्वास ग्रास के साथ नाम-धन इकट्ठा किया जा सकता है । जीव हरि नाम की कमाई करने आया था लेकिन इसका ध्यान संसारी धन और संसारी जरूरतों को पूरा करने में लग गया ।
छाडि सिआनप सगली मना ॥
साधसंगि पावहि सचु धना ॥
यहाँ सुचेत किया जा रहा है कि यहाँ तेरी खुद की सियानप (चतुराई ) ही तेरे रास्ते की बाधा बनेगी, इसलिए इसका त्याग करना जरूरी है । यह चतुराई आगे बढ्ने नहीं देती, यह हौमे को छोड़ने नहीं देती, अपनी मर्जी त्यागने नहीं देती ।
इसलिए अपने मन को साध लो तभी सच धन की प्राप्ति होगी । जिसका मन सधा हुआ नहीं होता जिसका मन संतोषी नहीं है जिसका मन माया में फंसा हुआ है वह यह धन नहीं पा सकता । मन माया की भूख नहीं त्यागता और रास्ते की बाधा बन जाता है । मन से माया की भूख के त्याग के बिना सच धन की प्राप्ति नहीं हो सकती ।
हरि पूंजी संचि करहु बिउहारु ॥
ईहा सुखु दरगह जैकारु ॥
हरि पूंजी को ही संचय कर इसी से व्यवहार करो । पहले संचय करो फिर व्यापार करो । यह पूंजी हमेशा रहने वाली है इस पर माया का कोई असर नहीं होता । यहाँ तो सुख होगा ही दरगाह में जय जयकार होगी । मन को जीतने वालों की दरगाह में जयकार होती है ।
सरब निरंतरि एको देखु ॥
कहु नानक जा कै मसतकि लेखु ॥७॥
सभी के अंदर लगातार एक को ही देख । हो सकता है फिर केवल गुरमुख अच्छे लगे और साकत अच्छे ही न लगें । यहाँ दृष्टिकोण में फर्क नहीं आने देना । यहाँ पर भी बुरे का भला करने की ही सोच रखनी है ।
नानक कह रहे हैं कि जिसके अंदर समदृष्टि होगी वही सबमे एक को देख पाएगा । कोई दूसरा कुछ भी सोचता रहे लेकिन वे अपनी समदृष्टि भंग नहीं कर सकते ।
Comments
Post a Comment