मति पूरी अम्रितु जा की द्रिसटि ॥ दरसनु पेखत उधरत स्रिसटि ॥
गउड़ी सुखमनी 177
मति पूरी अम्रितु जा की द्रिसटि ॥
दरसनु पेखत उधरत स्रिसटि ॥
मति पूरी अम्रितु जा की द्रिसटि ॥
दरसनु पेखत उधरत स्रिसटि ॥
जिसकी दृष्टि में अमृत हो उसकी मत पूरी होती है , जिसकी दृष्टि में अमृत
हो, जिसे गुरमत रुपी अमृत की प्राप्ति हो जाए उसकी मत ही पूरी होती है ।
दृष्टि से भाव बुद्धि से है । पूरी मत वाला जो कह रहा है उसे सुनकर पूरी
सृष्टि के लोगों का उद्धार हो जाता है । यहाँ दर्शन का अर्थ यह नहीं है कि
उसकी सूरत देखकर उद्धार होगा । पूरी मत वाला जो बोलकर कर दर्शन करा रहा है
उसी से उद्धार होगा ।
चरन कमल जा के अनूप ॥
सफल दरसनु सुंदर हरि रूप ॥
जिसके चरन कमल अनूप हो, (यहाँ बाहरी पैरों की बात नहीं की जा रही । यहाँ उन चरन कमलों की बात की जा रही है जो उपमा से परे हैं । )
उसका दर्शन सफल है । उस दर्शन को यदि कोई समझ ले तो उसकी बुद्ध बदल जाती है माया छूट जाती है । वह सही मार्ग पर आ जाता है । बस आगे उसने अपना सफ़र स्वम् ही तय करना है ।
जो अंदर सुंदर हरि है उसके रूप का दर्शन करवा देना है । हरि से मिलना है नहीं मिलना है वह स्वम् इसी की मर्जी है ।
धंनु सेवा सेवकु परवानु ॥
अंतरजामी पुरखु प्रधानु ॥
यदि इस सेवा में सेवक लग जाए तो यह सेवा धन्य है और सेवक परवान है । गुरबानी सेवा क्या है बताती है । शब्द विचार ही सेवा है यदि सेवक इस सेवा में लग जाए तो वह दरगाह में परवान है ।
झूठे साधुओं ने गुरमत के उलट सेवा करने में लोगों को लगा दिया । जो सेवा गुरमत अनुसार है उसका प्रचार नहीं किया । असली सेवा छुड़ा उन्हें नकली सेवा में लगा दिया ।
जो अंदर अंतरजामी पुरखु प्रधानु है वह सब जानता है कि सेवा का मकसद क्या है ।
जिसु मनि बसै सु होत निहालु ॥
ता कै निकटि न आवत कालु ॥
जिसके मन में यह सेवा बस जाए वह निहाल हो जाता है काल उसके निकट भी नहीं आता ।
नकली संतो की बताई सेवा डुबाने वाली ही है ।
अमर भए अमरा पदु पाइआ ॥
साधसंगि नानक हरि धिआइआ ॥८॥२२॥
जिनके काल निकट नही आता वे अमर होते हैं । नानक कह रहे हैं की जब संगि को साध लिया तब जाकर हरि का ध्यान किया । जब तक मन साध नहीं लेते तब तक हरि में ध्यान जुड़ता ही नही है । जिसने अपने संगि मन को साधा है केवल उसी का ध्यान हरि से जुड़ता है ।
चरन कमल जा के अनूप ॥
सफल दरसनु सुंदर हरि रूप ॥
जिसके चरन कमल अनूप हो, (यहाँ बाहरी पैरों की बात नहीं की जा रही । यहाँ उन चरन कमलों की बात की जा रही है जो उपमा से परे हैं । )
उसका दर्शन सफल है । उस दर्शन को यदि कोई समझ ले तो उसकी बुद्ध बदल जाती है माया छूट जाती है । वह सही मार्ग पर आ जाता है । बस आगे उसने अपना सफ़र स्वम् ही तय करना है ।
जो अंदर सुंदर हरि है उसके रूप का दर्शन करवा देना है । हरि से मिलना है नहीं मिलना है वह स्वम् इसी की मर्जी है ।
धंनु सेवा सेवकु परवानु ॥
अंतरजामी पुरखु प्रधानु ॥
यदि इस सेवा में सेवक लग जाए तो यह सेवा धन्य है और सेवक परवान है । गुरबानी सेवा क्या है बताती है । शब्द विचार ही सेवा है यदि सेवक इस सेवा में लग जाए तो वह दरगाह में परवान है ।
झूठे साधुओं ने गुरमत के उलट सेवा करने में लोगों को लगा दिया । जो सेवा गुरमत अनुसार है उसका प्रचार नहीं किया । असली सेवा छुड़ा उन्हें नकली सेवा में लगा दिया ।
जो अंदर अंतरजामी पुरखु प्रधानु है वह सब जानता है कि सेवा का मकसद क्या है ।
जिसु मनि बसै सु होत निहालु ॥
ता कै निकटि न आवत कालु ॥
जिसके मन में यह सेवा बस जाए वह निहाल हो जाता है काल उसके निकट भी नहीं आता ।
नकली संतो की बताई सेवा डुबाने वाली ही है ।
अमर भए अमरा पदु पाइआ ॥
साधसंगि नानक हरि धिआइआ ॥८॥२२॥
जिनके काल निकट नही आता वे अमर होते हैं । नानक कह रहे हैं की जब संगि को साध लिया तब जाकर हरि का ध्यान किया । जब तक मन साध नहीं लेते तब तक हरि में ध्यान जुड़ता ही नही है । जिसने अपने संगि मन को साधा है केवल उसी का ध्यान हरि से जुड़ता है ।
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