प्रभ बखसंद दीन दइआल ॥ भगति वछल सदा किरपाल ॥
गउड़ी सुखमनी 160
प्रभ बखसंद दीन दइआल ॥
भगति वछल सदा किरपाल ॥
प्रभ बखसंद दीन दइआल ॥
भगति वछल सदा किरपाल ॥
प्रभ दयालु है, दीन दयाल है । वह दीन पर कृपा करता है, साकत उसकी कृपा
नहीं पा सकता । जो उसकी भक्ति करते हैं उनकी रक्षा करने वाला है उन्हें छल
कपट से बचा कर रखने वाला है । वह सदा कृपालु रहता है ।
अनाथ नाथ गोबिंद गुपाल ॥
सरब घटा करत प्रतिपाल ॥
वह मन बुद्धि का नाथ है लेकिन स्वम् अनाथ है । मन को काबू किया हुआ है लेकिन स्वम् किसी के वश में नहीं है । मन का नाथ है । बुद्धि का नाथ है । बुद्धि इसी के अधीन है । यहाँ मूल की बात हो रही है ।
मूल – प्रभ
मूल ही गोबिंद है । जहाँ सुरती ने जुड़ना है मूल वही बिंदु है । मूल ही गोपाल है । मन बुद्धि की पालना करता है । मूल शरीर की पालना भी करता है बुद्धि की भी पालना करता है ।
जहाँ भी इसने शरीर धारण किये वहां पालना की । जितनी भी जौनियों ली सभी में पालना की ।
आदि पुरख कारण करतार ॥
भगत जना के प्रान अधार ॥
वह स्वम् आदि पुरख है । मन तो गर्भ में आकर पैदा होता है । मन को गर्भ में आकर अपने आप से अलग करता है । वह स्वम् ही कारण है और स्वम् ही करतार है । आदि पुरख इसलिए कहा गया है क्योंकि माया बाद में बनी है यह माया से पहले का ही है । इसके लिए ही माया बनी है । यदि इसमें बिगाड़ – नुक्स पैदा ही न होता तो रचना की जरुरत ही नहीं थी ।
जो भक्त जन हैं उनका प्राण आधार आदि पुरख ही है ।
जो जो जपै सु होइ पुनीत ॥
भगति भाइ लावै मन हीत ॥
जो जो जान लेता है वह पुनीत हो जाता है । आत्म ज्ञान द्वारा आत्म चिंतन द्वारा मन पहले अपने आप को जानता है फिर अपने मूल को जान लेता है । मूल तो पहले ही पुनीत है शुद्ध है, मन भी पुनीत हो जाता है । भक्ति की भूख द्वारा मन मूल के साथ जुड़े रहना ही अपना हित मानता है । मन अपने भले के लिए ही जुड़ता है ।
हम निरगुनीआर नीच अजान ॥
नानक तुमरी सरनि पुरख भगवान ॥७॥
नानक कह रहे हैं कि हम निर्गुण नीच अजान हैं और तुम्हारी शरण में आये है । यहाँ पुरख को भी भगवान कहा है ।
हिन्दू मत में देहधारी को भगवान कहा गया है बस यहीं अन्तर है ।
अनाथ नाथ गोबिंद गुपाल ॥
सरब घटा करत प्रतिपाल ॥
वह मन बुद्धि का नाथ है लेकिन स्वम् अनाथ है । मन को काबू किया हुआ है लेकिन स्वम् किसी के वश में नहीं है । मन का नाथ है । बुद्धि का नाथ है । बुद्धि इसी के अधीन है । यहाँ मूल की बात हो रही है ।
मूल – प्रभ
मूल ही गोबिंद है । जहाँ सुरती ने जुड़ना है मूल वही बिंदु है । मूल ही गोपाल है । मन बुद्धि की पालना करता है । मूल शरीर की पालना भी करता है बुद्धि की भी पालना करता है ।
जहाँ भी इसने शरीर धारण किये वहां पालना की । जितनी भी जौनियों ली सभी में पालना की ।
आदि पुरख कारण करतार ॥
भगत जना के प्रान अधार ॥
वह स्वम् आदि पुरख है । मन तो गर्भ में आकर पैदा होता है । मन को गर्भ में आकर अपने आप से अलग करता है । वह स्वम् ही कारण है और स्वम् ही करतार है । आदि पुरख इसलिए कहा गया है क्योंकि माया बाद में बनी है यह माया से पहले का ही है । इसके लिए ही माया बनी है । यदि इसमें बिगाड़ – नुक्स पैदा ही न होता तो रचना की जरुरत ही नहीं थी ।
जो भक्त जन हैं उनका प्राण आधार आदि पुरख ही है ।
जो जो जपै सु होइ पुनीत ॥
भगति भाइ लावै मन हीत ॥
जो जो जान लेता है वह पुनीत हो जाता है । आत्म ज्ञान द्वारा आत्म चिंतन द्वारा मन पहले अपने आप को जानता है फिर अपने मूल को जान लेता है । मूल तो पहले ही पुनीत है शुद्ध है, मन भी पुनीत हो जाता है । भक्ति की भूख द्वारा मन मूल के साथ जुड़े रहना ही अपना हित मानता है । मन अपने भले के लिए ही जुड़ता है ।
हम निरगुनीआर नीच अजान ॥
नानक तुमरी सरनि पुरख भगवान ॥७॥
नानक कह रहे हैं कि हम निर्गुण नीच अजान हैं और तुम्हारी शरण में आये है । यहाँ पुरख को भी भगवान कहा है ।
हिन्दू मत में देहधारी को भगवान कहा गया है बस यहीं अन्तर है ।
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