सति सरूपु रिदै जिनि मानिआ ॥ करन करावन तिनि मूलु पछानिआ ॥

गउड़ी सुखमनी 131

सति सरूपु रिदै जिनि मानिआ ॥
करन करावन तिनि मूलु पछानिआ ॥
सत स्वरूप हृदय में ही है । बाहर जो कुछ भी है वह माया है झूठ है । जो सत स्वरूप को हृदय में मानता है वही करने करवाने वाले का मूल पहचान लेता है । जो हमारे अंदर है जब वह चला जाता है तो यह शरीर ढह धेरी हो जाता है । शरीर को बनाने वाला, शरीर को चलाने वाला वही था, उसी की कमी को पूरा करने के लिए शरीर परमेश्वर ने बनवाया भी उसी से था । श्वास लेने वाला भी वही था, मन भी उसी का था । शरीर जो कुछ कर रहा है वे अंतरात्मा ही करवा रही है । जीवात्मा शरीर से करवा रही है । शरीर का कोई दोष नहीं है । जब हम मन की बात करते हैं तब असल में हम शरीर की बात कर रहे होते हैं । माया के शरीर की जो इच्छा है वही मन की इच्छा है । शरीर की जरूरत ही मन की भूख है ।
वह करन करावन हमारे अंदर है जब वह अंदर से निकाल जाता है तो श्वास आना बंद हो जाता है, हृदय काम करना बंद कर देता है । अंतरात्मा ही है जो शरीर को चला रही है, शरीर के बस में कुछ नहीं है । जिसने आत्मा को नहीं पहचाना मूर्ति पूजा वही करता है । जिसने ज्योत को नहीं पहचाना वही मूर्तिपूजा करता है । आत्मा की मूर्ति है जिसे अकाल मूरत कहा गया है । जिस पर समय का कोई प्रभाव नहीं होता । वह कभी पुरानी नहीं होती ।
जा कै रिदै बिस्वासु प्रभ आइआ ॥
ततु गिआनु तिसु मनि प्रगटाइआ ॥
सत स्वरूप हृदय में ही है पहले यह माना फिर जो करन करावन है उसे पहचाना, उसके बाद क्या होता है यहाँ उसी की व्याख्या है । जब उस प्रभ को हृदय में देखते हैं तब उस विश्वास हो जाता है । जब तक दर्शन नहीं होता तब तक विश्वास नहीं होता ।
जैसा सतिगुरु सुणीदा तैसो ही मै ढीठु ॥ अंग 957
जब मनबुद्धि अंतर्ध्यान होकर देखते हैं तभी प्रभ दिखाई देता है । तभी हृदय में देखकर उस पर विश्वास होता है और तत-ज्ञान प्रकट हो जाता है अर्थात परम तत की समझ आ जाती है जो माया के पाँच तत्वों से परे है । निरकारी तत की समझ आ जाती है ।
यहाँ सभी अवस्थाओं का वर्णन है । किस अवस्था के बाद कौनसी अवस्था है यहाँ बताया गया है ।
भै ते निरभउ होइ बसाना ॥
जिस ते उपजिआ तिसु माहि समाना ॥
तत-ज्ञान होने के बाद निर्भय की अवस्था है । पहले यदि कोई भय हो भी तो वह नहीं रहता । इस अवस्था में जन्म मरण, नफा-नुकसान, जस-अपजस का भय नहीं रहता । भय से निकलकर निर्भय अवस्था प्राप्त होती है तब मन को टिकाव आता है । यहाँ आकर कार्य पूर्ण होता है । इसे ही सद जीवन कहते हैं । माया की कल्पना रूपी नींद बंद हो जाती है स्वप्न बंद हो जाता है ।
जब मन बुद्धि सध जाते हैं तब जैसे ही मन अपने मूल को देखता है मन वहीं खत्म हो जाता है । जैसे किनारे पर आकर लहर खत्म हो जाती है वैसे ही मन खत्म हो जाता है । मन जब तब बाहर भागता फिरता है तब तक ही डरता है लेकिन मूल में समा कर शांत हो जाता है ।

बसतु माहि ले बसतु गडाई ॥
ता कउ भिंन न कहना जाई ॥
वस्तु के साथ वस्तु जुड़ जाती है फिर वह भिन्न नहीं रहती । जैसे कोई दरिया समुन्द्र में मिलने के बाद समुन्द्र ही हो जाता है वह फिर भिन्न नहीं रहता, उसका पिछला नाम नहीं रहता ।
उसी प्रकार मूल में समा कर मन भिन्न नहीं रहता । मूल ही हो जाता है । मूल भी निरकारी है और मन भी निरकारी है , मन अपने निरकारी मूल में समाता है ।

बूझै बूझनहारु बिबेक ॥
नाराइन मिले नानक एक ॥२॥
नाराइन – जहां अज्ञानता न हो , जहां अंधेरा न हो ।
नानक कह रहे हैं कि यह सब कोई विवेकी ही बूझ सकता है । मन का मूल में समा जाना कोई विवेकी ही समझ सकता है । संसारी बुद्ध इसे समझ नहीं सकती । जब मन अज्ञानता त्याग कर मूल को मिलता है तभी यह १ होते हैं । मन एक तब भी होता है जब सोता है लेकिन तब बीच में अज्ञानता होती है भ्रम होता है । जब मन सोता है तब भी मूल से मिलता है लेकिन अज्ञानता का पर्दा बीच में होता है । १ तब है जब मन जाग्रत अवस्था में मिले, अज्ञानता त्याग कर मिले । मन बेहोशी में मूल के पास जाता है वहाँ से बेहोशी में ही वापस आ जाता है । जब मन जागता है तब सद जीवन शुरू होता है ।

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