सरगुन निरगुन निरंकार सुंन समाधी आपि ॥ आपन कीआ नानका आपे ही फिरि जापि ॥१॥

गउड़ी सुखमनी 162
सलोकु ॥
सरगुन निरगुन निरंकार सुंन समाधी आपि ॥
आपन कीआ नानका आपे ही फिरि जापि ॥१॥
सरगुन - सारे गुणों सहित, जिसमे सभी गुण हों ।
निरगुन – जिसने गुण गवा लिए हों । जिसमे गुण ना हों । गुण पहले तो थे लेकिन अब नहीं है ।
हरि बिसरत तेरे गुण गलिआ ।। अंग 12
यहाँ ज्योत की बात है जिसके आधे गुण गले हुए हैं । मन का ना मरना गुण है जो हमेशा रहेगा । ज्योत कभी मर नहीं सकती यह गुण है जो हमेशा रहेगा । ज्योत सत-स्वरुप है । माया का भी रूप ही बिनसता है । मरता कुछ भी नहीं । केवल रूप ही बदलता है । न माया मरती है न ब्रह्म मरता है । ज्योत के सारे गुण ख़त्म नहीं होते । गुण अवगुणों में बदल जाते हैं । निरवैर से वैर, अजूनी से जूनी हो गयी । अकाल मूरत में काल-कल्पना शुरू हो गयी । निर्भय की जगह भयभीत हो गया । गुण अवगुणों में बदल गए ।
बिगड़े हुए गुणों को ठीक करना ही गुरबानी का उद्देश्य है । उदाहरण के लिए जैसे किसी व्यक्ति के शरीर को लकवा मार जाने पर उसका आधा शरीर काम करना बंद कर देता है बाकी आधा ठीक ही रहता है । उसी प्रकार यहाँ गुणों को हऊमै का लकवा मार गया ।
हऊमै का नाम के साथ विरोध है, नाम द्वारा ही हऊमै का रोग ठीक होता है । यदि मन नाम रुपी दवा को ग्रहण करे तो वह ठीक हो जायेगा अन्यथा उसका रोग ठीक नहीं होगा ।
सरगुन भी स्वम् है निरगुन भी स्वम् ही है । आधा हिस्सा ठीक है आधा हिस्सा रोगी है । जो हिस्सा ठीक है वही सरगुन है और जो रोगी है वह निरगुन है । दोनों एक ही हैं अलग नहीं है ।
निरंकार १ है । १ को ही रोग हुआ है । १ में ही नुक्स आया है । जो १ है निरंकार है वही सरगुन भी है निरगुन भी है । उसमे रोग उत्पन्न हो गया । अपने गुण गवाकर पूर्ण ब्रह्म से ब्रह्म हो गया । ४ गुण रह गए और ४ अवगुण हो गए ।
जीव ने जब जन्म लिया हुआ हो तब वह सरगुन निरगुन होता है । है यह भी १ लेकिन सरगुन निरगुन है । जब जन्म लिया ही नहीं होता तब यह सुन-समाधि होता है केवल ज्योत ही होती है । न यह सरगुन होती है न निरगुन । गुण होते हुए भी वह काम के नहीं होते । जब तक सुन-समाधि है तब तक सृष्टि पैदा नहीं हो सकती । जब सृष्टि नहीं थी तब यही सुन-समाधि की अवस्था में था, जो अब सरगुन निरगुन है । इसके गुणों का अवगुण बन जाना इसका खुद का किया ही है । सैभं – स्व्भंग – मन यदि चाहे तो वह चित के साथ रह सकता है, सच के साथ रह सकता है यदि मन चाहे तो वह अलग हो सकता है । मन चाहे तो वह झूठ से जुदा रह सकता है । गलती जीव से खुद से ही हुई है जो संसार में आना पड़ा है । अपना किया इसी खुद ही समझना पड़ेगा । क्यों यह आया है कैसे यह आया है कैसे गलती को ठीक किया जा सकेगा । पहले की गयी गलती को समझकर अपनी गलती को ठीक करना है । हुक्म की ही अवज्ञा हुई है और अब हुक्म में ही चलकर दिखाना है ।
**संसार में जैसे कानून की अवज्ञा करने वाले को जेल में बंद किया जाता है और निर्धारित समय के बाद छोड़ दिया जाता है फिर चाहे वह दुबारा गलती करे या न करे । लेकिन सचखंड तब तक जेल से रिहा नहीं करता जब तक मन में बदलाव न आ जाए । जब तक स्वभाव नहीं बदलता तब तक जीव संसार में ही रहेगा । जब जीव सचखंड में रहने के काबिल हो जाए तभी उसे संसार से निकाला जाता है ।**
असटपदी ॥
जब अकारु इहु कछु न द्रिसटेता ॥
पाप पुंन तब कह ते होता ॥
जब इसका कोई आकार ही नहीं था, जन्म ही नहीं लिया था तब यह पाप-पुण्य कैसे कर सकता था । जब शरीर ही नहीं था तब पाप पुण्य कैसे कर दिया । यह पंक्ति उनके लिए है जो कहते हैं कि पाप-पुण्य की वजह से जन्म होता है । पाप-पुण्य का फल भुगतने के लिए जन्म हुआ है । जो मत पाप-पुण्य को मानती है वह झूठी है । यदि कर्मों के फल भुगतने के लिए जन्म मिलता है तो सबसे पहला जन्म क्यों हुआ ? जब इसकी कोई देह ही नहीं थी तब पाप-पुण्य कैसे किया ।
जो मतें कर्म को जन्म का कारण मानती है वे कर्म का इलाज करने में लगी हुई हैं । कर्म का इलाज वह दान-पुण्य या पूजा पाठ को मानते हैं । और यही कर्मकांड पंडित की कमायी का साधन है । गुरमत कर्म को जन्म का कारण नहीं मानती बल्कि भ्रम ही जन्म का कारण है ।
भरमे भूला दह दिसि धावै ।। अंग 277
उन मतों में 5 विकारों को माना गया है काम क्रोध लोभ मोह अहंकार । अहंकार पर आकर वे रुक जाते हैं । नानक ने यह सवाल उठाया कि अहंकार कहाँ से पैदा होती है ? जो लोग माला पकड़कर नाम जपकर हऊमै दूर करने की कोशिश करते हैं वह यह नहीं जानते कि जब तक हऊमै है तब तक नाम जपा ही नहीं जा सकता । हऊमै दूर होगी तभी नाम जपा जा सकेगा । हमारे अंदर गुरबानी इसीलिए घर नहीं करती क्योंकि हमारे अंदर हऊमै है । हऊमै भ्रम से ही पैदा हुई है । नाम हऊमै की जड़ को मारता है । नाम भ्रम को मिटाता है । ज्ञान की कृपा ही गुर-प्रसाद है ।
गुर परसादि भरम का नासु ।। अंग 294
भ्रम का नाश गुर-प्रसाद द्वारा होता है । कर्म तो आदमी करते ही नहीं हैं यह तो केवल मानता है कि मैं कर्म करता हूँ । जब भ्रम का नाश हो गया तब बाकी सब अपने आप ही ख़त्म हो जाता है ।
जब शरीर नहीं था तब ऐसा क्या पाप किया कि शरीर धारण करना पड़ा । और यदि यह माने की शरीर धारण करने के बाद पाप किया तो पहले शरीर धारण ही क्यों किया । यह मानने वाली मतें इससे आगे जा ही नहीं सकती ।
जब धारी आपन सुंन समाधि ॥
तब बैर बिरोध किसु संगि कमाति ॥
जब सुन-समाधि की अवस्था थी, अंदर कोई इच्छा ही नहीं थी, किसी से वैर विरोध नही था तो जन्म क्यों मिला । उस अवस्था में वैर-विरोध किसी से कमाया ही नहीं जा सकता । सोया हुआ आदमी जो स्वप्न भी नहीं देख रहा वह किसी से क्या वैर-विरोध करेगा । उस अवस्था में इसका सम्पर्क ही किसी से नहीं होता, यह अकेला ही होता है ।
जब इस का बरनु चिहनु न जापत ॥
तब हरख सोग कहु किसहि बिआपत ॥
जब इसका कोई वर्ण चिन्ह ही नहीं था जब यह सोया हुआ था तब इसे कोई हरख सोग नहीं होता । हरख सोग (ख़ुशी-गम ) स्वप्न में होता है । यह जीवन भी स्वप्न मात्र है इसलिए हमें हरख सोग है । जब इसका अपना वजूद ही नहीं था तब इसे हरख सोग कैसे हो सकता था । इसे जस अपजस, लाभ हानि, जन्म मरण का भय ही नहीं था ।
जब आपन आप आपि पारब्रहम ॥
तब मोह कहा किसु होवत भरम ॥
पहले सुन-समाधि की अवस्था की बात की गयी थी लेकिन यहाँ जो जाग्रत है उसकी बात हो रही है । जब पूर्ण ब्रह्म जाग्रत अवस्था में होता है जब पूर्ण ब्रह्न सहज अवस्था में आता है तब यह पारब्रहम हो जाता है और जब यह स्वम् पारब्रह्म है तब इसे किसी का मोह कैसा होगा । क्योंकि पारब्रह्म को मोह नहीं होता । न उसमे भ्रम होता है और न ही मोह । उसमे अवगुण हो ही नहीं सकता ।
आपन खेलु आपि वरतीजा ॥
नानक करनैहारु न दूजा ॥१॥
अब यह सब खेल क्या है उसके बारे में बताते हुए नानक कह रहे हैं कि यह सब खेल इसी का है । यह बीमारी इसने स्वम् ही खुद को लगायी है । कोई दूसरा करनेहार नहीं है ।

Comments

Popular posts from this blog

सोचै सोचि न होवई जे सोची लख वार ॥ चुपै चुप न होवई जे लाइ रहा लिव तार

अकाल पुरख का सवरूप और उसके गुण

गिआन अंजनु गुरि दीआ अगिआन अंधेर बिनासु ॥ हरि किरपा ते संत भेटिआ नानक मनि परगासु ॥१॥