साधसंगि मिलि करहु अनंद ॥ गुन गावहु प्रभ परमानंद ॥

गउड़ी सुखमनी 174
साधसंगि मिलि करहु अनंद ॥
गुन गावहु प्रभ परमानंद ॥
यहाँ बुद्धि को कहा किया गया है कि वह अपने संगि मन को साध ले । इसे ठीक करले । इसी ने तेरा लोक परलोक बिगाड़ा हुआ है । यह मन चंचल है । इसकी चंचलता द्वारा कभी किसी ने कुछ नहीं पाया ।
जिसने अपना मन साध लिया वे १ हो सकते हैं । वह सचखण्ड वालों के साथ मिल सकता है । प्रभ जो स्वम् परमानन्द की अवस्था में रहता है उसके पास बैठ जाने से भी परमानन्द ही होता है । परमानन्द बिना गुण गायन हो ही नहीं सकता ।
राम नाम ततु करहु बीचारु ॥
द्रुलभ देह का करहु उधारु ॥
एक बाहरी देह है एक अंदर की देह है । बाहरी देह प्राप्त हुई है ताकि आंतरिक देह पायी जा सके । बाहरी देह की आवश्यकता तब तक है जब तक आंतरिक देह की प्राप्ति नहीं हुई । बाहरी देह आंतरिक देह तक पहुँचने का जरिया है । उद्धार उसी सोयी हुई गुप्त देहि का होता है इस बाहरी देहि का उद्धार नहीं होता ।
राम नाम तत है वस्तु है राम नाम । वह परमतत है ।तत ज्ञान भी लिया या दिया जा सकता है । राम नाम भी तत वस्तु है । राम नाम की विचार करो और दुर्लभ देह का उद्धार करो । दुर्लभ देह अपनी भी है और लोगों की भी है । दुर्लभ देह सभी में है । उद्धार करने से तात्पर्य है दुर्लभ देह की खुराक बनो । नाम द्वारा माया की सारी भूख खत्म होती है संसारी पदार्थों द्वारा यह भूख शांत नहीं होती । अग्नि को शांत करने के लिए जल की आवश्यकता है ना कि ईंधन की ।
जिनके अंदर तृष्णा की अग्नि है उन्हें नाम अमृत दो ताकि उनकी तृष्णा बुझ सके ।
अम्रित बचन हरि के गुन गाउ ॥
प्रान तरन का इहै सुआउ ॥
आत्मा का भव सागर को तर जाना ही उसका मनोरथ है । हमारा असली मनोरथ भव – सागर से पार जाना है । अमृत वचन रुपी हरि के गुण गायन से ही तृष्णा रुपी अग्नि शान्त होगी । जैसे जैसे शांत होगी वैसे वैसे आत्मा भव सागर को तर जायेगी । मन जो माया में फसा हुआ है उसी ने माया से ऊपर उठना है । मन ज्योत स्वरुप ही है ।
प्राण – ज्योत को ही कहा गया है । जब तक जीवात्मा है तब तक ही यह (बाहरी) शरीर जीवित है । मन का आधार प्रभ है । जब तक जीव आधा-आधा है तब तक इसका आधार प्रभ है । जो माया में फसा हुआ है उसका आधार प्रभ है । प्रभ स्वम् माया से बाहर है उसके साथ जुड़कर ही जो भाग माया में है वह माया से बाहर जाकर जीवित रह सकता है । यदि प्रभ से न जुड़ा हुआ हो तो शरीर छोड़कर यह बेहोश हो जाता है । यदि प्रभ से मिलकर शरीर त्यागे तब यह होश में ही रहता है । त्रिकुटी छोड़ते ही यह (माया वाला भाग) सो जाता है । यदि यह जाग्रत अवस्था में प्रभ से मिले तब यह भव सागर तर सकता है ।
प्रभ का आधार नाम है । जब १ होकर शब्द गुरु से जुड़ता है तभी भ्रम का नाश होता है ।
आठ पहर प्रभ पेखहु नेरा ॥
मिटै अगिआनु बिनसै अंधेरा ॥
आठों पहर उस प्रभ हो हाजिर समझो । जो सभी में है उसे गैर हाजिर कैसे समझा जा सकता है ।उस प्रभ को हमेशा अपने करीब मानो । इससे अज्ञान मिट जायेगा और अँधेरा मिट जायेगा ।
यदि इसे ही मान लिया जाए तो नितनेम की आवश्यकता ही नहीं है । जो आठों पहर प्रभ जो अपने साथ मानता है वह कोई गलती कर ही नहीं सकता । अज्ञानता की वजह से ही गलती होती है ।
सुनि उपदेसु हिरदै बसावहु ॥
मन इछे नानक फल पावहु ॥५॥
गुरमत का उपदेश सुनकर ह्रदय में बसाने से मनवांछित फल की प्राप्ति होगी ।
जो मागहि ठाकुर अपुने ते सोई सोई देवै।। अंग 681

Comments

Popular posts from this blog

सोचै सोचि न होवई जे सोची लख वार ॥ चुपै चुप न होवई जे लाइ रहा लिव तार

अकाल पुरख का सवरूप और उसके गुण

गिआन अंजनु गुरि दीआ अगिआन अंधेर बिनासु ॥ हरि किरपा ते संत भेटिआ नानक मनि परगासु ॥१॥