जीअ जंत के ठाकुरा आपे वरतणहार ॥ नानक एको पसरिआ दूजा कह द्रिसटार ॥१॥
गउड़ी सुखमनी 170
सलोकु ॥
जीअ जंत के ठाकुरा आपे वरतणहार ॥
नानक एको पसरिआ दूजा कह द्रिसटार ॥१॥
यहाँ पूर्ण-ब्रह्म की बात की जा रही है पूर्ण ब्रह्म ही जीव- जन्तुओं का ठाकुर है । सभी में स्वम् ही है । संसार में भी वही है संसार से परे भी वही है । जब रोगी के रूप है तब तक मरीज है जब तंदरुस्त है तब चिकित्सक के रूप में है । जब तंदरुस्त है तब एक चिकित्सक की भूमिका निभाता है जब रोगी है तब मरीज की भूमिका निभाता है ।
नानक कह रहे हैं कि पूर्ण ब्रह्म अपने गुण गवा कर ब्रह्म बन गया, उसने अपने गुण गवा लिए । उन गुणों में जो कमी पद गयी उनकी पूर्ति के लिए ही संसार में जन्म हुआ है । जो गुण गल गए उन्ही को ठीक करने हेतु यहाँ आया है ।
असटपदी ॥
आपि कथै आपि सुननैहारु ॥
आपहि एकु आपि बिसथारु ॥
चिकित्सक जैसे रोगी का इलाज दवा द्वारा करता है वैसे ही यहाँ चिकित्सक कथन रुपी दवा द्वारा रोगी का इलाज करता है । कथन ही दवा है । कथन में ज्ञान है । यहाँ रोग कथन को सुनकर ही ठीक होगा यहाँ कोई और दवा काम नहीं करती । कथन को समझकर और मानकर ही रोग ठीक होगा । जो कथन कर रहा है वह चिकित्सक है और जो सुनने वाला है वह रोगी है ।
यह स्वम् ही चिकित्सक है और स्वम् ही रोगी है । आप ही एक है आप ही सारा विस्तार है । जब पूर्ण ब्रह्म तब भी एक आप है जब विस्तार होता है तब भी यह आप ही है । एक से विस्तार होकर दो हो जाते हैं फिर फिर उससे आगे विस्तार हो जाता है । मन में भिन्नता है । चित में एकता रह जाती है । पूर्णब्रह्म से जब ब्रह्म हुआ है तब मन करके भिन्नता है लेकिन चित के आधार पर एकता ही है । मन की भिन्नता ही विस्तार है । यही ८४ लाख जौन है ।
जा तिसु भावै ता स्रिसटि उपाए ॥
आपनै भाणै लए समाए ॥
जब पूर्ण ब्रह्म की इच्छा होती है तभी सृष्टि पैदा होती है । जब रोगी हो जाते हैं तब उनके इलाज की व्यवस्था की जाती है । रोगी के इलाज के लिए ही सृष्टि बनी है । सृष्टि केवल एक चिकित्सालय के समान है जहाँ हऊमैं रोग का इलाज होता है ।
जब अकारु इहु कछु न द्रिसटेता ॥
पाप पुंन तब कह ते होता ॥
रचना से पहले जब पाप-पुण्य नहीं था तब रोग का कारण क्या था वही बताया गया है । अपनी मर्जी की वहज से ही रोगी हुआ है अपनी मर्जी से ही रोग दूर होगा ।
पाई कुहाड़ा मारिआ गाफलि अपुनै हाथि ।। अंग 1365
यहीं इसके गुण गले हैं । अपना हरि विसर गया । अपने बड़े से टकराव हो गया । झूठ ने सच की बराबरी करली । यदि मन की सोच प्रधान हो गयी तो यह बिछड़ जाता है ।
जिसे पूर्ण ब्रह्म की मर्जी भा जाती है उसे अपने में समा लेता है । जिस रोगी को दवा लग जाती है अर्थात जिसे नाम अच्छा लग जाता है वह इस चिकित्सालय से निकल जाता है । नाम ही दवा है । जब दुनिया के रसों से मन उब जाता है तब उनका त्याग करता है । ऐसा कभी नहीं होता कि यह कभी तृप्त हो जाए, यह केवल दुनियावी रसों से उब जाता है ।
तुम ते भिंन नही किछु होइ ॥
आपन सूति सभु जगतु परोइ ॥
तेरे बिना, पूर्ण ब्रह्म से बिना कुछ नहीं हो सकता । न सृष्टि पैदा हो सकती है और न चल सकती है । न चिकित्सालय बन सकता है और न रोगीओं का उपचार हो सकता है । सारा जगत हुक्म के सूत्र में पिरोया हुआ है । तुम शब्द से भाव अनेकता में एकता के लिए आया है । हुक्म रुपी एकता के लिए प्रयोग किया गया है ।
जा कउ प्रभ जीउ आपि बुझाए ॥
सचु नामु सोई जनु पाए ॥
यह जो बताया गया है यह बहुत ही गहरी बात है जो बूझने योग्य थी । सृष्टि कैसे पैदा हुई क्यों पैदा हुई किसने पैदा की । जिसे प्रभ आप बुझाये सच नाम उसी को मिलता है । अर्थात यह ज्ञान उसी को मिलता है ।
करण कारण प्रभु ऐकु है दूसर नाही कोइ ।। अंग 276
सो समदरसी तत का बेता ॥
नानक सगल स्रिसटि का जेता ॥१॥
जो सच नाम पा ले वह समदर्शी होता है । वह सच्ची मत को धारण करने वाला होता है । समदर्शी के लिए कोई सिख या हिन्दू नहीं होता । वह केवल रोगी को देखता है । सभी मतें बीमार ही कर रही है । समदर्शी के लिए सभी रोगी है । मतों में जो नुक्स या कमी होती है वह रोगी को बता देता है । वह भूले हुओं को सही मार्ग दिखाता है ।
जो सच नाम पा लेता है वह समदर्शी होता है तत का ज्ञाता भी होता है । तत का जानकार है और तत-ज्ञान की ही बात करता है । जिसने तत का दर्शन नहीं किया जिसने तत को नहीं समझा वह समदर्शी भी नहीं हो सकता ।
नानक कह रहे हैं कि ऐसा समदर्शी तत का बेता सारी सृष्टि को जीत लेता है । जो वह कह देता है उसका कोई जवाब नहीं दे सकता । उसके सच का कोई जवाब नहीं दे सकता ।
सलोकु ॥
जीअ जंत के ठाकुरा आपे वरतणहार ॥
नानक एको पसरिआ दूजा कह द्रिसटार ॥१॥
यहाँ पूर्ण-ब्रह्म की बात की जा रही है पूर्ण ब्रह्म ही जीव- जन्तुओं का ठाकुर है । सभी में स्वम् ही है । संसार में भी वही है संसार से परे भी वही है । जब रोगी के रूप है तब तक मरीज है जब तंदरुस्त है तब चिकित्सक के रूप में है । जब तंदरुस्त है तब एक चिकित्सक की भूमिका निभाता है जब रोगी है तब मरीज की भूमिका निभाता है ।
नानक कह रहे हैं कि पूर्ण ब्रह्म अपने गुण गवा कर ब्रह्म बन गया, उसने अपने गुण गवा लिए । उन गुणों में जो कमी पद गयी उनकी पूर्ति के लिए ही संसार में जन्म हुआ है । जो गुण गल गए उन्ही को ठीक करने हेतु यहाँ आया है ।
असटपदी ॥
आपि कथै आपि सुननैहारु ॥
आपहि एकु आपि बिसथारु ॥
चिकित्सक जैसे रोगी का इलाज दवा द्वारा करता है वैसे ही यहाँ चिकित्सक कथन रुपी दवा द्वारा रोगी का इलाज करता है । कथन ही दवा है । कथन में ज्ञान है । यहाँ रोग कथन को सुनकर ही ठीक होगा यहाँ कोई और दवा काम नहीं करती । कथन को समझकर और मानकर ही रोग ठीक होगा । जो कथन कर रहा है वह चिकित्सक है और जो सुनने वाला है वह रोगी है ।
यह स्वम् ही चिकित्सक है और स्वम् ही रोगी है । आप ही एक है आप ही सारा विस्तार है । जब पूर्ण ब्रह्म तब भी एक आप है जब विस्तार होता है तब भी यह आप ही है । एक से विस्तार होकर दो हो जाते हैं फिर फिर उससे आगे विस्तार हो जाता है । मन में भिन्नता है । चित में एकता रह जाती है । पूर्णब्रह्म से जब ब्रह्म हुआ है तब मन करके भिन्नता है लेकिन चित के आधार पर एकता ही है । मन की भिन्नता ही विस्तार है । यही ८४ लाख जौन है ।
जा तिसु भावै ता स्रिसटि उपाए ॥
आपनै भाणै लए समाए ॥
जब पूर्ण ब्रह्म की इच्छा होती है तभी सृष्टि पैदा होती है । जब रोगी हो जाते हैं तब उनके इलाज की व्यवस्था की जाती है । रोगी के इलाज के लिए ही सृष्टि बनी है । सृष्टि केवल एक चिकित्सालय के समान है जहाँ हऊमैं रोग का इलाज होता है ।
जब अकारु इहु कछु न द्रिसटेता ॥
पाप पुंन तब कह ते होता ॥
रचना से पहले जब पाप-पुण्य नहीं था तब रोग का कारण क्या था वही बताया गया है । अपनी मर्जी की वहज से ही रोगी हुआ है अपनी मर्जी से ही रोग दूर होगा ।
पाई कुहाड़ा मारिआ गाफलि अपुनै हाथि ।। अंग 1365
यहीं इसके गुण गले हैं । अपना हरि विसर गया । अपने बड़े से टकराव हो गया । झूठ ने सच की बराबरी करली । यदि मन की सोच प्रधान हो गयी तो यह बिछड़ जाता है ।
जिसे पूर्ण ब्रह्म की मर्जी भा जाती है उसे अपने में समा लेता है । जिस रोगी को दवा लग जाती है अर्थात जिसे नाम अच्छा लग जाता है वह इस चिकित्सालय से निकल जाता है । नाम ही दवा है । जब दुनिया के रसों से मन उब जाता है तब उनका त्याग करता है । ऐसा कभी नहीं होता कि यह कभी तृप्त हो जाए, यह केवल दुनियावी रसों से उब जाता है ।
तुम ते भिंन नही किछु होइ ॥
आपन सूति सभु जगतु परोइ ॥
तेरे बिना, पूर्ण ब्रह्म से बिना कुछ नहीं हो सकता । न सृष्टि पैदा हो सकती है और न चल सकती है । न चिकित्सालय बन सकता है और न रोगीओं का उपचार हो सकता है । सारा जगत हुक्म के सूत्र में पिरोया हुआ है । तुम शब्द से भाव अनेकता में एकता के लिए आया है । हुक्म रुपी एकता के लिए प्रयोग किया गया है ।
जा कउ प्रभ जीउ आपि बुझाए ॥
सचु नामु सोई जनु पाए ॥
यह जो बताया गया है यह बहुत ही गहरी बात है जो बूझने योग्य थी । सृष्टि कैसे पैदा हुई क्यों पैदा हुई किसने पैदा की । जिसे प्रभ आप बुझाये सच नाम उसी को मिलता है । अर्थात यह ज्ञान उसी को मिलता है ।
करण कारण प्रभु ऐकु है दूसर नाही कोइ ।। अंग 276
सो समदरसी तत का बेता ॥
नानक सगल स्रिसटि का जेता ॥१॥
जो सच नाम पा ले वह समदर्शी होता है । वह सच्ची मत को धारण करने वाला होता है । समदर्शी के लिए कोई सिख या हिन्दू नहीं होता । वह केवल रोगी को देखता है । सभी मतें बीमार ही कर रही है । समदर्शी के लिए सभी रोगी है । मतों में जो नुक्स या कमी होती है वह रोगी को बता देता है । वह भूले हुओं को सही मार्ग दिखाता है ।
जो सच नाम पा लेता है वह समदर्शी होता है तत का ज्ञाता भी होता है । तत का जानकार है और तत-ज्ञान की ही बात करता है । जिसने तत का दर्शन नहीं किया जिसने तत को नहीं समझा वह समदर्शी भी नहीं हो सकता ।
नानक कह रहे हैं कि ऐसा समदर्शी तत का बेता सारी सृष्टि को जीत लेता है । जो वह कह देता है उसका कोई जवाब नहीं दे सकता । उसके सच का कोई जवाब नहीं दे सकता ।
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