गुर कै ग्रिहि सेवकु जो रहै ॥ गुर की आगिआ मन महि सहै ॥

गउड़ी सुखमनी 139
गुर कै ग्रिहि सेवकु जो रहै ॥
गुर की आगिआ मन महि सहै ॥
गुर के गृह जो सेवक रहता है ....
हृदय ही गुर का गृह है यदि मन उसमे सेवक बनकर रहने लग जाये । मन त्रिकुटी छोड़ कर हृदय में निवास करे तो वह गुर के गृह में बस गया । सतिगुरु के घर यदि सेवक रहता है सतिगुरु की संगति यदि सेवक करता है तो उसे भी यही उपदेश है कि वह त्रिकुटी छोड़ हृदय में निवास करे ।
गुर की आज्ञा को मन से स्वीकार करे, अंतरात्मा की आवाज़ सुन कर स्वीकार कर । गुर की मर्जी को खुशी से स्वीकार करे । गुर की आज्ञा गुर के वचनों को अर्थात गुरबानी को मन में स्वीकार करे । गुरबानी जो मत पर चोट करती है उसे सहे । पुरानी मत पर गुरबानी प्रहार करती है है और नयी मत तैयार करती है । अवगुणो पर चोट पड़ेगी तभी अवगुण दूर होंगे । इसलिए गुर की आज्ञा को मन द्वारा सहन करना है । गुर की आज्ञा चाहे कैसे भी हो चाहे कितनी भी कड़वी क्यों ना हो उसे बर्दाश्त करना ही पड़ेगा ।
आपस कउ करि कछु न जनावै ॥
हरि हरि नामु रिदै सद धिआवै ॥
और साथ ही कभी अपने आप को कुछ भी न समझे । कभी अपने आप को बहुत बड़ा न समझे । अपने आप को ज्ञानवान समझने या दूसरों पर प्रभाव डालने की कोशिश न करे । यहाँ सिख को उसकी अवस्था के बारे में बताते हुए सलाह दी जा रही है कि वह अपने आप को दूसरों से अधिक न समझे । प्राप्त हुए ज्ञान में कहीं अहंकार का अंश न आ जाये । थोड़े से ज्ञान से हौमे (हऊमै) आ जाती है ।
सिख ज्ञान प्राप्त करके भी अपने आप को कुछ न समझे, व्याख्यान करने की बजाए और ज्ञान प्राप्त करे । हृदय में हरि – नाम, हरि के ज्ञान का ही ध्यान करता है । हर पल हरि के ज्ञान की ही विचार करता है । अपने अंदर कमी को दूर करता रहे ।
पिछले पद में सतिगुरु कैसा होता है वह बताया गया था यहाँ सिख कैसा होना चाहिए वह बताया जा रहा है ।
मनु बेचै सतिगुर कै पासि ॥
तिसु सेवक के कारज रासि ॥
अपना मन सतिगुरु को समर्पित करदे । सतिगुरु के वचन को सत-वचन कह कर स्वीकार करे । मन को सतिगुरु को समर्पित करने वाले सेवक के सभी कार्य पूरे होते हैं ।
सेवा करत होइ निहकामी ॥
तिस कउ होत परापति सुआमी ॥
उसकी सेवा निष्काम होनी चाहिए । सेवक के अंदर कोई कामना नहीं होनी चाहिए तभी उसे शब्द-गुरु की प्राप्ति होती है ।
गुर अर्जुन देव और उनके भाइयों में यही फर्क था । उनमे कामना थी जबकी गुर अर्जुन देव की सेवा निष्काम थी ।
अपनी क्रिपा जिसु आपि करेइ ॥
नानक सो सेवकु गुर की मति लेइ ॥२॥
नानक कह रहे हैं अपनी कृपा अपने आप पर करे, अंतरात्मा अपने मन पर कृपा करे, अपना प्रभ अपने ही मन पर कृपा करे, मन के अवगुणों को दूर करे, प्रभ अपने मन को यम के जाल से बचा ले, मन से भ्रम को दूर करे तभी मन सेवक होकर गुर की मत लेता है । असल में अंतरात्मा में ही खोट है, यदि अंतरात्मा की ही इच्छा न हो तो उसका मन क्या मानेगा । जब तक अंतरात्मा में सिक्खी की इच्छा नहीं तब तक मन में भी सिक्खी की इच्छा पैदा नहीं हो सकती ।
**** मेरी मर्जी और मेरे मन की मर्जी एक ही बात है । ****

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