किव सचिआरा होईऐ किव कूड़ै तुटै पालि
किव सचिआरा होईऐ किव कूड़ै तुटै पालि
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यहाँ पर गुरबानी हमें बता रही हैं की किस तरह से हुम्म सचिचार हो सकते है किस तरह इस भरम कूड़ की
दीवार को जो मन और चित में अ चुकी है हम दूर कर सकते है |गुरबानी ही सिर्फ ऐसी विधि है जिस के जरिये ब्रहम लीन जनि परमेश्वर के हुकम में अभेद होना सम्भव है |इस का जवाब गुरु जी ने दिया है की हुकम की रजा में चलना ही इस का एक मात्र उपाए है |पीशे हम मन को ब्रहम लीन होने के उपाए के बारे में चर्चा कर चुके है जिन्हे गुरबानी खंडित कर चुकी है |असल में जब जीव यह मान ले के परमेश्वर की बनायीं हुए सृष्टि में सब उसके हुकम के अनुसार ही चल रहा है जिसमे किसी भी वयक्ति का कोई भी दखल नहीं हो सकता है |क्योकि रचन हार खुद ही सारी सृष्टि को चला रहा है |पर जब मनुखी मन अपने विचारधारा के अधीन जो जाता है तब ही इससे हुकम का विरोध होता है |
ਹੁਕਮ ਕੀਏ ਮਨਿ ਭਾਵਦੇ ਰਾਹਿ ਭੀੜੈ ਅਗੈ ਜਾਵਣਾ
हुकम कीए मनि भावदे राहि भीड़ै अगै जावणा पेज ४७०
यह बात अपने आप में १०० फीसदी सच है की जो कुश भी यहाँ पर हो रहा है परमेश्वर की ही ईशा से हो रहा है पर मनुखी मन में सकल्प और विकल्प उठते रहते है जो सभी पूरे नहीं होते है |यह भी हमे पता है की जो भी हम सोचते है वो सब कुश पूरा नहीं होता है हजारो कल्पनायें मन की है ऐसा होना चाइये वैसा होना चाइये जो पूरा नहीं होता है |और कभी हो भी नहीं सकता है |पर हमारे मन में कुश कल्पनायें परमेश्वर रबी हुकम के साथ मेल खाने की वजह से पूरी भी हो जाती है क्योकि परमेश्वर भी की वही ईशा होती है वही काम हमसे करवाना होता है |पर यहाँ पर मनुष्य यह भरम अपने अंदर बीज रूप में डाल बैठा है की मेरी सोच पूरी हुए है और इसी बीज रूप कल्पना से आगे नयी कल्पना जनम लेती है |पर जीव यह नहीं सोचता है की जो कुश भी उसने सोचा था वो सारा कुश पूरा क्यों नहीं हुआ क्योक जो कुश भी मन चित्वता रहा है वो सारा कुश पूरा नहीं हुआ |कई बार हमारा सोचा हुआ भी हो जाता है क्योकि मन भी तो उसी परम शक्ति का अंश है फरक सिर्फ उसमे इतना है की अज्ञानता है जीव के मन में |इस लिएअज्ञानी मन ब्रहम ज्ञानी का भेद कैसे जान सकता है |इस लिए गुरबानी कहती है की जैसे एक बच्चे की कही हुई बात कभी बड़े भी मान लेते है पर इस का मतलब यह नहीं की वो बच्चे का हर मशवरा ही माना जा सकता है
ਨਾਲਿ ਇਆਣੇ ਦੋਸਤੀ ਕਦੇ ਨ ਆਵੈ ਰਾਸਿ ॥
नालि इआणे दोसती कदे न आवै रासि ॥
ਹੋਇ ਇਆਣਾ ਕਰੇ ਕੰਮੁ ਆਣਿ ਨ ਸਕੈ ਰਾਸਿ ॥
होइ इआणा करे कमु आणि न सकै रासि ॥
ਜੇ ਇਕ ਅਧ ਚੰਗੀ ਕਰੇ ਦੂਜੀ ਭੀ ਵੇਰਾਸਿ ॥੫
जे इक अध चंगी करे दूजी भी वेरासि ॥५॥
यह बात साफ़ है की कुश सकल्प परमेश्वर की मनुष्य के मन से मेल खाने से ही पूरे होते है |वो हमारे ज्ञान की उपज नहीं होते है |यह तो एक अंधे के हाथ बटेर लगने वाली ही बात है |जिस इस मन ने अपनी कल्पना से अनेको तृष्णा रुपी तीर चलाये अगर एक आधा तीर निशाने पर बैठ गिया तो इसको मन की जा जीव की कलाकारी नहीं कहा जा सकता है |यह मन की कोई दूर दृष्टि नहीं है |स्पष्ट है की मन जो चाहता है वे सभी कुश होता नहीं है |तो जब कल्पना पूरी होनी ही नहीं है गुरबानी जीव को कल्पना छोड़ देने को ही कह रहे है क्योकि कल्पना ही इसका काल रूप है जो इस को हुकम के बिरोध में ल कर खड़ा कर देती है |और यह जीव खुद भी मानता है की मेरी कितनी कल्पनायें पूरी नहीं हुई इस लिए कल्पना से लाभ नहीं हानि ही होती है |
पहला तो न जीव को कल्पना का नुक्सान यह है की जो काम यह संसार में करने के लिए आया है जिस के लिए इस को यहाँ पर यह मानस का सरीर मिला है वो काम यह नहीं कर सकता क्योकि कल्पना इस को यह काम नहीं करने देगी |फरमान है गुरबानी का
ਆਇਓ ਸੁਨਨ ਪੜਨ ਕਉ ਬਾਣੀ ॥
आइओ सुनन पड़न कउ बाणी ॥ पेज १२१९
जीव यहाँ पर ज्ञान लेने और ज्ञान पूरा करने के लिए ही आया है जो इस को गुरबानी में दिया हुआ है |यह भी बात सच है सारा दिन जा २४ घंटे तो गुरबानी पढ़ी जा सुनी नहीं जा सकती है पर काम में भी लग्गा हुआ यह अपने अंदर शब्द विचार तो कर ही सकता है क्योकि अगर काम करता हुआ संसार के बारे में सोच सकता है तो गुरबानी की विचार भी अंदर चल सकती है |
ਹਾਥ ਪਾਉ ਕਰਿ ਕਾਮੁ ਸਭੁ ਚੀਤੁ ਨਿਰੰਜਨ ਨਾਲਿ ॥੨੧੩॥
हाथ पाउ करि कामु सभु चीतु निरंजन नालि ॥२१३
दूसरा नुक्सान यह है की परमेश्वर की अंश रूप मन का हुकम के साथ हमारी कल्पना के द्वारा टकराव चलता रहता है |क्योकि परमेश्वर की सोच और हमारे मन की सोच दोनों ही आपा विरोधी सोच है |अपनी सोच अहंकार के अंदर से जनम लेती है और यही हुकम का विरोध करवाता रहता है |और यही अपनी अहंकार से उपजी हुई सोच ही पाप होती है |करम सिद्धांत कल्पित पुन पाप को मानता है पर गुरबानी में पुन पाप के अर्थ बिलकुल भिन है |गुरबानी के अनुसार अपनी कल्पना में जीना ही पाप है और पमेश्वर के हुकम में जीना ही पुन कर्म है |असल में तो मानुषी मन केवल सोच ही सकता है अपने सोचे हुई सोच को असली जामा पहना देना इस के बस की बात नहीं है |अगर मान लिया जाये के इस के बस की बात है तो उपरोकत हुकम सिद्धांत ही गलत दिखाई देने लग जाता है |पहले तो हुकम मन के अधीन हुआ है और पहले हुकम परमेश्वर के हुकम से अलग हुआ |तो हमारा हुकम परमेश्वर के हुकम को काट कर ही लागू हो सकता है परमेश्वर के हुकम को काटा जा सकता है ऐसा गुरबानी नहीं मानती है |क्योकि परमेश्वर का हुक्म रद्द करके ही हम अपना हुकम मनवा सकते है |यह दोनों ही बाते विरोधी बाते है इस लिए करम सिद्धांत ही यहाँ फेल होता दिखाई देता है |क्योकि करम सिद्धांत मनुष्य के कुश कर देने में मनुष्य को सक्ष्म मानता है चाहे वो बात पमेश्वर के हुकम के विपरीत ही क्यों न हो यह दोनों ही असम्भव बाते है |करम सिद्धांत अपने आप ही फेल होता दिख रहा है |पर करम सिद्धांत मानने वाले यह नहीं जानते की छोटी अदालत के फैसले जैसे बड़ी अदालत रद भी कर सकती है इसी पर्कार मानुषी मन तो केवल सोच ही सकता है |एक तरह वो खुद कहता है परमेश्वर सर्ब सक्तिमान है दूसरी तरफ मनुष्य के उसके बिपरीत कुश करने को भी सक्ष्म मानते है और यह भरम पाल लेते है की परमेश्वर की मर्जी के खिलाफ हम जा सकते है जो उन्हें नादान अज्ञानीही कहा जा सकता है .....करम सिद्धांत से मुक्ति सम्भव नहीं है
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