अनहद शब्द क्या है

गुरमुख नादं गुरमुख वेदं गुरमुख रहिआ समायी।।
जो लोग उस समय सतगुरु जी जिनको उपदेश कर रहे हैँ वह पहले सिद्ध मत से प्रभावित थे यानी कि वह योग मत को मानते थे सिद्धमत  मेँ नाद भाव शब्द से तो ज्ञान प्राप्त होने को माना गया है पर सिद्ध यह तो मांगते हैँ के शब्द से ही कोई ज्ञान हो सकता है पर शब्द के अर्थ समझने मेँ वह गलती खा गए.।  इस नाद को या शब्द को शास्त्रोँ मेँ भी आकाशवाणी कहा गया है पर यह आकाशवाणी निराकार की भाषा में  होने के कारण कानो  से नहीँ सुनी जा सकती क्योंकि यह शब्द माया से मुक्त होता है किसी हवा के सहारे बोला  जा पैदा नहीँ किया जा सकता ना होता है यह शब्द  माया से परे निराकार दुनिया जहाँ पर ना हवा है ना कोई धरती है ना ही ऐसा आकाश है क्योंकि आकाश तक तो केवल माया सागर तक ही सीमित है अहंकार से युक्त मन इसके अंदर ही रह सकता है इसी का नाम भव सागर अथवा दुख सागर है।
हम यहाँ पर बात नाद और उसके अंदर वेद ज्ञान की कर रहे है। पिछले समय से ही परमेश्वर को ज्ञान स्वरुप माना गया है जिसकी जानकारी जैसे कह दिया जाए कि परमेश्वर अपनी जानकारी भाव अपना ज्ञान इसी शब्द नाद के द्वारा समय समय पर जीव को देता रहता है।  यह निराकारी शब्द सरब  व्यापक है और हर समय चलता रहता है इसी को अनहद शब्द कहा गया है यह मनुष्य के मन मेँ संकेतक ज्ञान रुप है। यह शब्द कानोँ से सुना नहीँ जा सकता
जीवोँ को शरीर मेँ सुपन अवस्था जानी सोया हुआ गुरबाणी ने माना है क्योंकि अभी यह जागृत अवस्था मेँ नहीँ है इसलिए यह नाद  शब्द लगातार चल रहा है और अंदर बजता रहता है  और यह संकेत  ज्ञान स्वरुप भी है जबकि जीव माया की नींद मेँ सोया हुआ पड़ा है जब तक यह जी जागृत अवस्था मेँ नहीँ आ जाता इसको इस शब्द के बारे मेँ कुछ भी नहीँ पता चलता अर्थात चेतना के सोए हुए होने के कारण इसका संपर्क परमेश्वर के उस शब्द के साथ मेँ नहीँ जुड़ पाता जैसा के गुरबाणी मेँ फरमान  है
नो निध अमृत प्रभ का नाम।।देहि में इस का बिसराम।।सुन समाद अनहद तेह नाद।।कहन न जाई असचर्ज विस्माद।।
इसीलिए गुरबाणी के अंदर जीवोँ के जागने की बात की गई है इसलिए सत गुरु जी को दिखाई दे रहा है कि परमेश्वर ने ही जीव को देह मेँ अज्ञानता की नींद मेँ सुला रखा हुआ है दूसरी तरफ वह अपना ज्ञान रुपी शब्द भी उसके ही अंदर बजा  आ रहा है यह परमेश्वर क्यूँ कर रहा है इस इस बात को वह बहुत ही आश्चर्य से देख रहे हैँ और विस्माद  मेँ चले जा रहे हैँ क्योंकि वह इसमेँ कुछ भी दखल देने मेँ अपने आप को असमर्थ देख रहे हैँ क्योंकि वह साक्षात दिव्य दृष्टि से देख रहे हैँ कि इन जीव को जगा कर वह केवल आप ही इस इस माया रुपी संसार से निकाल रहा है जिसने खुद ही इनको दुरमत रुपी मद शराब पिला कर बेहोश कर दिया हुआ है और यह भी जीवोँ की भलाई के लिए है क्योंकि अगर जीव को दुख ना हो तो वह कभी भी इस संसार को नहीँ छोड़ेगा और ना ही मुक्ति के लिए प्रयत्न करेगा
गुर किरपा ते से नर जागे जिना हर मन वसिआ बोलेह अमृत बाणी।।
पर इससे उल्टा योग मार्ग मेँ योगियोँ के द्वारा कई प्रकार की समाधि लगाकर कई तरह की आवाज को कानोँ के राही सुनाई देनी शुरु कर दी जो के माया रुपी शब्द से ज्यादा और कुछ भी नहीँ था आ क्योंकि वह शरीर मेँ ही ध्यान लगाकर   शरीर की ही आवाज को सुन कर उसको ही कोई अनहद शब्द समझ रहे थे पर यह तो शरीर मेँ पैदा होने वाली ही आवाज मेँ है  जिनको डॉक्टर भी अपने ए साधन से सुन ले लेते हैँ क्योंकि अगर योगियोँ का शब्द कोई ज्ञान रूप शब्द होता तो वह कोई न कोई ज्ञान की बात तो बताते कि उस शब्द मेँ क्या ज्ञान है इसकी गुरु नानक देव जी उन लोगोँ को उपदेश करते हुए कहते हैँ अगर किसी के अंदर वह शब्द सुनना देने की इच्छा हो और उसके अंदर इन शरीर के कानोँ के द्वारा वह शब्द नहीँ सुना जा सकता अगर वह शब्द के अंदर परमेश्वर ज्ञान स्वरुप को देखना चाहते हैँ तो उंहेँ किसी उपदेश की ज़रुरत होगी जो उंहेँ कोई गुरु  ही दे सकता ह। क्योंकि गुरमुख के मन मेँ परमेश्वर खुद ही निवास कर रहा होता है इसलिए गुरमुख मेँ वह आप ही अपने निराकार शब्द को बोल के साकार रुप मेँ प्रकट कर रहा होता है जो के बोला हुआ शब्द हम कानोँ से सुन सकते हैँ इस कहने का भाव अर्थ ही यही है भगतो और गुरमुख के  द्वारा बोली हुई वाणी ही निराकार शब्द स्वरुप है और इसके अंदर प्राप्त होने वाला ज्ञान ही जीवन प्राप्त कर कर जीव मुक्त अवस्था को प्राप्त होना है और यही अवस्था केवल गुरबाणी जा वेद वाणी के विचार ने और उस पर चलने से ही संभव है फरमान है गुरु वाणी मे
बाणी बिरलओ विचारसी जे को गुरमुख होए।। एह बाणी महा पुरख की निज घर वासा होए।।अंग 835
धन धन भाग तिना संत जना,जो हर जस सरवनि सुनतिया।।अंग 684
जिसका साफ अर्थ यह है कि सतगुरु जी उन संतो को जो कानोँ से कोई माया रुपी धूल सुनने के आदमी हैँ और इनकी दोनोँ को वह निराकार शब्द समझ के डींगे  हांक रहे हैँ उनको उपदेश कर रहे हैँ कि इस बनावटी माया रुपी शब्द को त्याग कर जो संतुष्ट प्रगट रुपी रब्बी वाणी अनहद शब्दकोष सुनेंगे उनके ही भाग्य धन धन हैँ वह इस शब्द के अंदर का तत्व ज्ञान प्राप्त करके इस तरह तत रुप ही हो जाएंग और उस परम तत्व मेँ जीते जी ही   अभेद जाएंगे

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