परमेश्वर के बारे में गुरबाणी में ज्ञान।।जे हु जाना आखा नाही कहना कथन न जाई।।गुरा इक देंह बुजायि।।सबना जिया का इक दाता सो में विसर न जायी।।

अब यह बता रही है अब सतगुरु जी स्पष्ट तौर पर यह बता रहे है कि आज तक ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं हुआ है और ना आगे से होगा जो के परमेश्वर की बराबरी कर सकें अगर कोई ऐसा व्यक्ति मेरी जानकारी में होता तो मैं बता देता आप और यह बात अपनी जगह पर बिल्कुल सच है कि मुझे शब्द ग्रुप की विचार उसे एक परमेश्वर की समझ मिल गई है इसलिए मुझे सदगुरु जानी गुरबाणी के ज्ञान के द्वारा एक परमेश्वर की बुजारत को बूज लेने में सफलता प्राप्त हुई है पर इस में समस्या यह है कि इसके बारे में कथन करना बहुत मुश्किल है क्योंकि सृष्टि के अंदर परब्रम्ह जैसी कोई भी दूसरी वस्तु नहीं है जिस की तुलना करके समझाया जा सके इसका बताना तो ऐसे हुआ जैसे किसी गूंगे ने गुड़ खा लिया हो और उसके बाद उससे पूछा जाए के गुड़ का स्वाद कैसा है इसलिए कबीर साहब जी ने भी बोला है

बोल अबोल मध है सोई।।जस उह है तस लखे न कोई।।अंग 340।।

जिस का भाव अर्थ ही यही है कि परमेश्वर के बारे में बोल कर कुछ बताना असंभव है क्योंकि वह इस माया रूपी आंखों की पकड़ से परे है फिर भी उस प्रभु को जानने के लिए जा उस प्रभु के बारे में सीधे तौर न सही असीधे तौर पर ही जानकारी करवा सकता है इस पर  गुरबाणी के अंदर भी   अंदर भी परमेश्वर के गुणों का वर्णन किया गया है जिससे हमें उसकी जानकारी प्राप्त होती है जब हम किसी बात को असीधे तरीके से बताने को विवश हो जाते है तो उस बात के अंदर भेद रह जाना संभावित ही है इसी को ही गुरबानी में शब्द भेद कहां है यह शब्द भेद को जान लेना ही उस तत्वज्ञान को जान लेना है जो परमेश्वर की कृपा के बिना जानना असंभव है इसीलिए धार्मिक ग्रंथ में जो अर्थ छुपे हुए है वह आम इंसान की बुद्धि से परे की बात है गुरबाणी में भी ऐसे ही अर्थ है और ग्रंथों में भी ऐसे ही अर्थ है पर और ग्रंथों में जो सत्य है सिर्फ उसके साथ भी गुरबाणी सहमत है किसी भी झूठ के साथ सहमत नहीं और गुरबाणी का सच झूठ को काट देता है गुरु साहब इसमें यही फरमा रहे है कि वह जो परमेश्वर है मैंने उसको जान लिया है वह सब जीव का दाता है यानि के सभी जीव को पालता है और सब को दात देता मुझे दिखाई दे रहा है इसलिए मैं उसे अभी कभी भूल नहीं सकता

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