क्या तीर्थ पर जाना धर्म है जा सिर्फ पाखंड ।।तीर्थ नावा जे तिस भावा बिन भाने के नाइ करी।।

इस पंक्ति में गुरु जी उन व्यक्तियों को उपदेश कर रहे है जो के तीर्थ में जाना और तीर्थ में जाकर अपने जीवन मनोरथ को प्राप्त कर लेने के भरम  में फसे हुए हैं की तीर्थो  पर जाने से कुछ पुण्य मिलता है गुरुजी उनके साथ सहमति प्रकट करते हुए बोल रहे है कि मैं आंखें बंद कर कर क दिए थे इतना भी भरोसा नहीं कर रहा बल्कि मुझे तो तीसरी आंख यानी अंतर रुपी ज्ञान रूपी आंख खुलने के बाद ही यह समझ आई है कि वही काम करना चाहिए जो हमारे परमेश्वर को अच्छा लगे इसलिए जैसे कोई नौकर अपने मालिक को खुश कर के ही उसकी कृपा का पात्र बनता है और मालिक की रज़ा में रहने से ही उसको हर काम करना पड़ेगा इसलिए उस नौकर को हर काम करने से पहले यह सोचना पड़ेगा फिर मेरे इस काम करने से मेरे मालिक को कोई असहमति तो नहीं होगी इसलिए पूर्ण परमेश्वर को पूर्ण तौर से पढ़ने से भी होकर के अंदर चलने की है राइट है और धर्म के नाम के ऊपर जितने भी काम ज्यादातर इंसान कर रहे है वह सभी हमारे मन को अच्छे लगने वाले काम है इसी  के अंदर तीर्थ स्थान जहां किसी स्थान की ज़ियारत करनी भी आ जाता है जैसे हिंदू तीर्थ पर जाते हैं मुस्लिम हज पर जाते हैं कोई और औरे किसी तीर्थ पर जाता है और यह धर्म का हिस्सा मान लिया गया है पर किसी जगह पर जाना और वापस आ जाना धर्म नहीं होता ना ही इसका कोई कोई और पाप से लेना-देना है ना इसका कोई फल मिलता है गुरमत की दृष्टि में धर्म के नाम पर कोई भी ऐसा काम करना नासमझी की बात है जो प्रभु की दृष्टि में लाभदायक नहीं हो इसलिए गुरु जी ऐसे तीर्थ के स्नान और ऐसे किसी भी जियारत के बिल्कुल बार खिलाफ है जिस से कुछ भी हासिल नहीं होता और जो परमेश्वर की निगाह में परवाना हो

।।जेती सिर्ठ उपाई वेखां विन कर्मा की मिले लई।।

पर फिर भी अगर आप यह बात को मानते हो तो आगे सुनो की जितनी भी यह सृष्टि उस परमेश्वर ने पैदा की है तो आप बताओ कि परमेश्वर के बिना और कौन से सृष्टि के जीव को दात दे रहा है जो कुछ भी यह जीव प्राप्त कर रहे है वह खुशी परमेश्वर से ही तो प्राप्त कर रहे है तो यह बताओ कि जो व्यक्ति तीर्थ पर नहीं जाते तीर्थ का स्नान नहीं करते उनको यह सब वस्तुएं किस प्रकार से प्राप्त हो रहे है गुरु जी के तर्क को कोई काट दे ऐसा हो ही नहीं सकता क्योंकि पूरे गुरु के पास ऐसा तर्क होता है जिसको काट देने की संभावना किसी में नहीं हैइस प्रकार गुरु जी ने इस बात को इसमें ही समेट दिया है तो दुनिया के अलग-अलग धर्म अपने अलग-अलग तीर्थ स्थान बना लेते है पर अगर यह तीर्थस्थान सच्चे हूं तो यह तीर्थ स्थान अलग लग नहीं होने चाहिए इन को मानने वाले तो एक रूपता के पुजारी होते हैं क्योंकि दूसरा रूप तो माया धारी का ही होता है इसलिए इस पखंड बाद से धर्म को बचाना है असली धर्म है

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