कुण्डलिनी जागरण क्या है ?

कुण्डलिनी जागरण क्या है ?
योग क्रियाओं के हठ से किसी किस्म की कुण्डलिनी नहीं जगती, सब छलावा , ढोंग है |
मन से अज्ञानता और हर किस्म के वहम (भरम ) का धीरे धीरे मिट जाना ही मन की उलझनो(गुंजलों) का सुलझना है , गुरबानी में इसे ही कुण्डलिनी का सुलझना कहा गया है और यह तभी सम्भव है जब मन अहंकार का त्याग कर अपने अंतरात्मा (मूल) के हुकम अनुसार चलने लगे | अपने मूल की संगत (सतसंगत) में मन एक मृत सर्प की तरह अपना वजूद (वर्चस्व) खो देगा और सच के मार्ग पर सीधा चलेगा |

कुंडलनी सुरझी सतसंगति परमानंद गुरू मुखि मचा ॥
- श्री आदि ग्रन्थ, पन्ना १४०२

सूही महला १ घरु ७
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
जोगु न खिंथा जोगु न डंडै जोगु न भसम चड़ाईऐ ॥
जोगु न मुंदी मूंडि मुडाइऐ जोगु न सिंङी वाईऐ ॥
अंजन माहि निरंजनि रहीऐ जोग जुगति इव पाईऐ ॥१॥
गली जोगु न होई ॥
एक द्रिसटि करि समसरि जाणै जोगी कहीऐ सोई ॥१॥ रहाउ ॥
जोगु न बाहरि मड़ी मसाणी जोगु न ताड़ी लाईऐ ॥
जोगु न देसि दिसंतरि भविऐ जोगु न तीरथि नाईऐ ॥
अंजन माहि निरंजनि रहीऐ जोग जुगति इव पाईऐ ॥२॥
सतिगुरु भेटै ता सहसा तूटै धावतु वरजि रहाईऐ ॥
निझरु झरै सहज धुनि लागै घर ही परचा पाईऐ ॥
अंजन माहि निरंजनि रहीऐ जोग जुगति इव पाईऐ ॥३॥
नानक जीवतिआ मरि रहीऐ ऐसा जोगु कमाईऐ ॥
वाजे बाझहु सिंङी वाजै तउ निरभउ पदु पाईऐ ॥
अंजन माहि निरंजनि रहीऐ जोग जुगति तउ पाईऐ ॥४॥१॥८॥
- श्री आदि ग्रन्थ, पन्ना ७३०

Comments

Popular posts from this blog

सोचै सोचि न होवई जे सोची लख वार ॥ चुपै चुप न होवई जे लाइ रहा लिव तार

अकाल पुरख का सवरूप और उसके गुण

गिआन अंजनु गुरि दीआ अगिआन अंधेर बिनासु ॥ हरि किरपा ते संत भेटिआ नानक मनि परगासु ॥१॥