सरीर से परे आत्मा का अस्तित्व

गउड़ी सुखमनी 183
सरब भूत आपि वरतारा ॥
सरब नैन आपि पेखनहारा ॥
सारी विभूति माया की ही है चाहे वह जड़ हो या चेतन । जड़ विभूति बाहरी शरीर के उपयोग के लिए हैं । चेतन है ब्रह्मज्ञानी का भोजन ज्ञान और सभी जोनों को हर प्रकार का ज्ञान । चाहे खुराक मन की हो चाहे आत्मा की चाहे शरीर की सारी वस्तुएं, सभी निधान सब कुछ उस ठाकुर के हाथ में ही है वह अपनी मर्जी अनुसार सब को सब कुछ दे रहा है ।
आँखों से पेखनहार मन है लेकिन नैनों से पेखनहारा चित है । जब नैनों द्वारा देखता है तब एक ही रूप दिखायी देता है तक केवल ज्योत दिखाई दिखायी देती है । आत्मा के तल पर सभी एक रूप हैं । ज्योत सब में एक ही है एक जैसी ही है ।
नैनों द्वारा वह स्वम् देखता है । बाहरी आँखों द्वारा केवल माया ही दिखती है । आंतरिक शरीर की जो देखन शक्ति है उसी को नैन कहा गया है ।
सगल समग्री जा का तना ॥
आपन जसु आप ही सुना ॥
सारी सामग्री, जितनी भी माया हमें दिखाई देती है यह उसका शरीर ही है । जब यह सुन समाधि में था तब माया इसका शरीर ही थी । माया को अलग कर ५ तत्वों का निर्माण किया गया । पहले पूर्ण ब्रह्म का शरीर था अब ब्रह्म का शरीर है । जब स्वम् भी १ था तब माया भी १ थी अब स्वम् खण्डित है इसलिए माया भी अलग है । पहले माया के दो हिस्से हुए आकाश और पवन उसके बाद बाकी हिस्से हुए । इसी प्रकार ज्ञान भी खंडित हो जाता है । जब विवेक बुद्धि में कमी आती है तब अनेक प्रकार की बुद्धियाँ हो जाती है माया के असर से ज्ञान बहुरंगी हो जाता है । माया का प्रभाव भी बहुरंगी है ।
जब हरि खंडित हो जाता है माया में आ जाता है तब बहुरंगी हो जाता है । जब तक हरी १ है तब तक केवल एक ही रंग होता है ।
यह सगल सामग्री उसी का ही तन था । तब सूर्य चन्द्रमा धरती कुछ नहीं था । तब सब कुछ उसका ही तन था । उससे ही अलग होकर यह सब बना है ।
यहाँ १ की बात हो रही है पूर्ण ब्रह्म की बात हो रही है । उसका तन ही खण्डित होकर यहाँ आया है । शरीर २ हो गए ।
जब यह सुनता है अपना जस आप ही सुनता है । जस करता भी स्वम् ही है सुनता भी स्वम् ही है ।
सारी सामग्री जिसका तन है अपना जस वह स्वम् ही सुनता है ।
आवन जानु इकु खेलु बनाइआ ॥
आगिआकारी कीनी माइआ ॥
यह जन्म मरण बस एक खेल के समान ही है । शरीर हमारी आज्ञा में है उसके अतिरिक्त जितनी भी माया है सब उसी के हुक्म में है । जो उसने पैदा किया है सब उसी की आज्ञा में है ।
सभ कै मधि अलिपतो रहै ॥
जो किछु कहणा सु आपे कहै ॥
वह हुक्म के रूप में शब्द रूप में सभी के अंदर है लेकिन अलिप्त है । सबके अंदर है लेकिन अलिप्त है मिला हुआ किसी से भी नहीं है । जो कुछ भी हुक्म करना होता है वह सीधा ही करता है । उसका हमसे सीधा संपर्क है । बीच में किसी गुरु की आवश्यकता नहीं है । जो कहना होता है वह स्वम् कहता है किसी दूसरे के हाथ सन्देश नहीं भेजता ।
आगिआ आवै आगिआ जाइ ॥
नानक जा भावै ता लए समाइ ॥६॥
जीव आज्ञा अनुसार ही आता है आज्ञा अनुसार ही जाता है । जब हुक्म होता है तब शरीर छोड़कर चला जाता है । नानक कह रहे हैं कि जब यह चाहता है कि मैंने संसार में नहीं रहना तब हुक्म इसे खुद में समा लेता है ।
परमेश्वर तो सदा ही चाहता है जीव का ही मन नहीं भरता । जीव का ही संसार से मन नहीं भरता । जब तक इसका मन नहीं भरता तब तक परमेश्वर भी कुछ नहीं कहता । जब यह स्वम् चाहता है कि परमेश्वर मुझे समा ले तब परमेश्वर इसे समा लेता है । जब यह चाहता है तब हुक्म इसे समा लेता है ।
See translation

Comments

Popular posts from this blog

सोचै सोचि न होवई जे सोची लख वार ॥ चुपै चुप न होवई जे लाइ रहा लिव तार

अकाल पुरख का सवरूप और उसके गुण

गिआन अंजनु गुरि दीआ अगिआन अंधेर बिनासु ॥ हरि किरपा ते संत भेटिआ नानक मनि परगासु ॥१॥